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________________ selec तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ १०१ वि पंचह वि एवं चेव, सरीरसंघायणामाए पंचण्ह वि जहा सरीरणामाए कम्मस्स ठिइत्ति | कठिन शब्दार्थ - अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ - अन्तः कोटाकोटी सागरोपम । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वैक्रिय शरीर नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! वैक्रिय शरीर नाम कर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के े भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार वर्ष) का है। आहारक शरीर नाम कर्म की जघन्य स्थिति अन्त: कोडाकोडी सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्त: कोटाकोटी सागरोपम की है । तैजस और कार्मण शरीर नाम कर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार वर्ष का है। ७ औदारिक शरीरोपांग, वैक्रिय शरीरोपांग और आहारक शरीरोपांग, इन तीनों की स्थिति भी इसी प्रकार है। पांचों शरीर बन्धन नाम कर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिए, पांचों शरीर संघात नाम कर्मों की स्थिति भी शरीर नाम कर्म की स्थिति के समान है । विवेचन - वैक्रिय शरीरं नाम कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है इसमें मिथ्यात्व मोहनीय की स्थिति ७० कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जघन्य स्थिति सागरोपम के दो सप्तांश आती है किन्तु वैक्रिय षट्क एकेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय बांधते नहीं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि ही बांधते हैं और असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि जघन्य से बंध करते हुए एकेन्द्रिय के बंध की अपेक्षा हजार गुणा बंध करते हैं क्योंकि "पणवीसा पन्नासा सयं सहस्सं च गुणकारः " पच्चीस, पचास, सौ और सहस्र गुणा करना - ऐसा शास्त्र वचन है अतः जो सागरोपम के दो सप्तांश हैं उन्हें हजार से गुणा करने पर सूत्र में कहे अनुसार स्थिति आती है यानी हजार सागरोपम के दो सप्तांश स्थिति होती है। आहारक शरीर नाम कर्म की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोटाकोटी सागरोपम की कही गई है परन्तु जघन्य से उत्कृष्ट संख्यात गुणा समझना चाहिए। Jain Education International =============================== वइरोसभणारायसंघयणणामाए जहा रइ णामाए । उसभणारायसंघयणणामाए पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं सागरोवमस्स छ पणतीसइभागा पनिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं बारस सागरोवमकोडाकोडीओ, बारस चाससयाइं अबाहा० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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