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प्रज्ञापना सूत्र
विशिष्टता ४. रूप विशिष्टता ५. तप विशिष्टता ६. श्रुत विशिष्टता ७. लाभ विशिष्टता और ८. ऐश्वर्य विशिष्टता । जिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म पाता है उसे नीच गोत्र कहते हैं । नीच गोत्र आठ प्रकार का कहा गया है १. जाति २. कुल ३. बल ४. रूप ५. तप ६. श्रुत ७. लाभ और ८. ऐश्वर्य से हीन होना । उच्च गोत्र कर्म के उदय से जीव धन, रूप आदि से हीन होता हुआ भी ऊंचा माना जाता है और नीच गोत्र के उदय से धन, रूप आदि से सम्पन्न होते हुए भी नीच ही माना जाता है। अंतराइए णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते ?
गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते । तंजहा - दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए ॥ ६१७॥ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! अन्तराय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
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उत्तर - हे गौतम! अन्तराय कर्म पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है. यावत् वीर्यान्तरायकर्म |
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विवेचन - जिस कर्म के उदय से आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन शक्तियों की घात होती है अर्थात् दान, लाभ आदि में रुकावट पड़ती है वह अन्तराय कर्म है। अंतसय कर्म के पांच भेद इस प्रकार हैं
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दानान्तराय
१. दानान्तराय - दान की सामग्री तैयार हो, गुणवान् पात्र आया हुआ हो, दाता दान का फल भी जानता हो तथा दान देने की इच्छा भी हो इस पर भी जिस कर्म के उदय से जीव दान नहीं कर सकता, उसे दानान्तराय कर्म कहते हैं।
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२. लाभान्तराय - योग्य सामग्री के रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती वह लाभान्तराय कर्म है। जैसे- दाता के उदार होते हुए, दान की सामग्री विद्यमान रहते हुए तथा मांगने की कला में कुशल होते हुए भी कोई याचक दान नहीं पाता वह लाभान्तराय कर्म का फल समझना चाहिये।
३. भोगान्तराय - जो वस्तु एक बार भोगने में आवे उसे भोग कहते हैं। जैसे अन्न, फल आदि । त्याग प्रत्याख्यान के न होते हुए तथा भोगने की इच्छा रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव विद्यमान स्वाधीन भोग सामग्री का कृपणता और रोग आदि के वश भोगं न कर सके वह भोगान्तराय कर्म है।
४. उपभोगान्तराय - जो चीज बार-बार भोगने में आवे उसे उपभोग कहते हैं। जैसे - वस्त्र, आभूषण आदि । जिस कर्म के उदय से जीव त्याग प्रत्याख्यान न होते हुए तथा उपभोग की इच्छा होते हुए भी विद्यमान स्वाधीन उपभोग सामग्री का कृपणता और रोग आदि के वश उपभोग न कर सके वह उपभोगान्तराय कर्म है ।
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