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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ
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अर्थ - एक दिशा में फैलने वाली प्रशंसा को कीर्ति कहते हैं और सब दिशाओं में (चारों तरफ) फैलने वाली प्रशंसा को यश कहते हैं अथवा दान और पुण्य से उत्पन्न प्रशंसा को कीर्ति कहते हैं और पराक्रम अर्थात् पुरुषार्थ से प्राप्त प्रशंसा को यश कहते हैं। वैसे तो कीर्ति और यश एक ही हैं। अपेक्षा कृत ये भेद हैं। ___अयशः कीर्ति नाम - जिस कर्म के उदय से लोक में अपयश और अपकीर्ति हो, उसे अयशः कीर्ति नाम कर्म कहते हैं।
निर्माण नाम - जिस कर्म के. उदय से जीव के अंगोपांग नियत स्थानवर्ती हों, उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं। जैसे चित्रकार चित्र के यथायोग्य स्थानों में अवयवों को बनाता है वैसे ही निर्माण नाम कर्म भी शरीर के अवयवों को व्यवस्थित करता है।
तीर्थकर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव चौंतीस अतिशयों से युक्त होकर त्रिभुवन का पूज्य होता है, उसे तीर्थंकर नाम कर्म कहते हैं।
गोए णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - उच्चागोए य णीयागोए य। उच्चागोए णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। तंजहा - जाइविसिट्ठया जाव इस्सरियविसिट्ठया। एवं णीयागोए वि, णवरं जाइविहीणया जाव इस्सरियविहीणया॥६१६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! गोत्र कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? । उत्तर - हे गौतम! गोत्र कर्म दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - उच्च गोत्र और नीच गोत्र। प्रश्न- हे भगवन् ! उच्च गोत्र कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? .
उत्तर - हे गौतम! उच्च गोत्र कर्म आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - जाति विशिष्टता यावत् ऐश्वर्य विशिष्टता।
प्रश्न - हे भगवन्! नीच गोत्र कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! नीच गोत्र कर्म आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता।
विवेचन - जिस कर्म के उदय से जीव ऊँच नीच शब्दों से कहा जाय उसे गोत्र कर्म कहते हैं। इसी कर्म के उदय से जीव जाति, कुल आदि की अपेक्षा छोटा बड़ा कहा जाता है। गोत्र कर्म के दो भेद हैं - १. उच्च गोत्र और २. नीच गोत्र। जिस कर्म के उदय से जीव उच्च कुल में जन्म पाता है उसे उच्च गोत्र कहते हैं। उच्च गोत्र आठ प्रकार का कहा गया है - १. जाति विशिष्टता २. कुल विष्टिता ३. बल
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