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प्रज्ञापना सूत्र
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भावार्थ: - प्रश्न - हे भगवन् ! एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित - देवत्व
के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हुई हैं ?
उत्तर - हे गौतम! एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित - देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हुई हैं।
केवइया बद्धेललगा ?
गोयमा ! णत्थि ।
प्रश्न - हे भगवन् ! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ?
उत्तर - हे गौतम! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं।
केवइया पुरेक्खडा ?
गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्स अस्थि अट्ठ वा सोलस वा । सव्वट्टसिद्ध देवत्ते - अतीता णत्थि, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि, जस्स अत्थि अट्ठ ।
एवं जहा णेरइयदंडओ णीओ तहा असुरकुमारेण वि णेयव्वो जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं, णवरं जस्स सट्टाणे जड़ बद्धेल्लगा तस्स तइ भाणियव्वा
॥ ४५४ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित देवत्व के रूप में पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होंगी ?
उत्तर - हे गौतम! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होंगी, किसी की नहीं होंगी, जिसकी होंगी, उसकी आठ या सोलह होंगी।
सर्वार्थसिद्ध देवपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हुई, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होंगी, किसी की नहीं होंगी। जिसकी होंगी, उसकी आठ होंगी ।
जैसे नैरयिक की नैरयिकादि त्रिविध रूप में पाई जाने वाली अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में दण्डक कहा, उसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी पंनेन्द्रिय तिर्यंच योनिक तक के दण्डक कहने चाहिए। विशेषता यह है कि जिसकी स्वस्थान में जितनी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहनी चाहिए।
एगमेगस्स णं भंते! मणूसस्स णेरइयत्ते केवइया दव्विंदिया अतीता ?
गोयमा ! अनंता ।
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