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पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-द्वितीय उद्देशक - दसवां अवग्रह द्वार
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ईहा कितने प्रकार की कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! ईहा पांच प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार है - श्रोत्रेन्द्रिय ईहा यावत् स्पर्शनेन्द्रिय ईहा। इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक ईहा के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतनी ही ईहा कहनी चाहिए।
विवेचन - ईह धातु चेष्टा अर्थ में है । सद्भूत अर्थ की विचारणा रूप चेष्टा ईहा कहलाती है । तात्पर्य यह है कि अवग्रह के बाद और अपाय के पूर्व सद्भूत अर्थ विशेष को ग्रहण करने और अद्भूत अर्थ विशेष का त्याग करने को अभिमुख बोध विशेष को ईहा कहते हैं। यहाँ शंख आदि के मधुरता आदि शब्द धर्म ज्ञात होते हैं और सारंग आदि के कर्कशता- निष्ठुरता आदि शब्द धर्म ज्ञात नहीं होते अतः यह शब्द शंख का होना चाहिए। इस प्रकार की मति विशेष ईहा कहलाती है। भाष्यकार कहते हैं "भूयाभूयविसेसादाणच्चायाभिमुहमीहा " - सद्भूत अर्थ को ग्रहण करने और असद्भूत अर्थ का त्याग करने को अभिमुख बोध विशेष ईहा है।
दसवां अवग्रह द्वार
कइविहे णं भंते! उग्गहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते । तंजहा - अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य ।
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह |
वंजणो णं भंते! कइविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! चडव्विहे पण्णत्ते । तंजहा- सोइंदियवंजणोग्गहे, घाणिंदियवंजणोग्गहे, जिब्भिदियवंजणोग्गहे, फासिंदियवंजणोग्गहे ।
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! व्यंजनावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! व्यंजनावग्रह चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है - श्रोत्रेन्द्रियावग्रह, घ्राणेन्द्रियावग्रह, जिह्वेन्द्रियावग्रह और स्पर्शनेन्द्रियावग्रह |
अत्थोग्गणं भंते! कइविहे पण्णत्ते ?
गोयमा! छव्विहे पण्णत्ते । तंजहा - सोइंदियअत्थोग्गहे, चक्खिदियअत्थोग्गहे, घाणिंदियअत्थोग्गहे, जिब्भिदियअत्थोग्गहे, फासिंदियअत्थोग्गहे, णोइंदियअत्थोग्गहे ॥ ४५० ॥
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