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________________ ५४ प्रज्ञापना सूत्र आकाश थिग्गल कहा है। आकाश थिग्गल (लोक) किस-किस से स्पृष्ट है ? इसके उत्तर में भगवान् फरमाते हैं कि - लोक सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, क्योंकि धर्मास्तिकाय पूरा का पूरा लोक में ही अवगाढ़ है, अतएव वह धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, क्योंकि जो जिसमें पूरी तरह व्याप्त है, उसे उसके एक देश में व्याप्त नहीं कहा जा सकता किन्तु लोक धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से व्याप्त तो है ही, क्योंकि धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेश लोक में ही अवगाढ़ हैं। यही बात अधर्मास्तिकाय के विषय में भी समझनी चाहिए, किन्तु लोक सम्पूर्ण आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, क्योंकि लोक सम्पूर्ण आकाशास्तिकाय का एक छोटा-सा खण्डमात्र ही है, किन्तु वह आकाशास्तिकाय के देश से और प्रदेशों से स्पृष्ट है, यावत् पुद्गलास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से तथा पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक सभी कायों से स्पृष्ट है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि समग्र लोक में व्याप्त हैं। अतएव उनके द्वारा भी वह पूर्ण रूप से स्पृष्ट है, किन्तु त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट होता है, कथंचित् स्पृष्ट नहीं भी होता है। जब केवली भगवान् समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने आत्म प्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं। केवली भगवान् त्रसकाय के ही अन्तर्गत हैं, अतएव उस समय समस्त लोक त्रसकाय से स्पृष्ट होता है। इसके अतिरिक्त अन्य समय में सम्पूर्ण लोक त्रसकाय से स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि त्रसजीव सिर्फ त्रसनाडी में ही पाए जाते हैं। जो सिर्फ एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है। अद्धासमय से लोक का कोई भाग स्पृष्ट होता है और कोई भाग स्पृष्ट नहीं होता। अद्धा-काल अढ़ाई द्वीप में ही है, आगे नहीं है। 'आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है' इसका आशय - यहाँ आत्म-भाव से स्पृष्ट बताया है आधार का उसी में स्पर्श मान लिया है। स्वयं का स्वयं में होना आत्म-भाव कहा गया है। अनुयोग द्वार सूत्र में सब वस्तुओं को आत्म भाव में समावेश होना माना है। वैसे ही यहाँ पर भी समझना चाहिये अन्य स्थानों पर - आकाश आधार होने से उसको आधेय रूप नहीं मान कर उसका उसमें समावेश होना नहीं बताया है। अपेक्षा से दोनों प्रकार का कथन उचित ही है। ____२३. द्वीप और उदधि द्वार जंबूदीवेणं भंते! दीवे किंणा फुडे? कइहिं वा काएहिं फुडे? किं धम्मत्थिकाएणं जाव आगासत्थिकाएणं फुडे? गोयमा! णो धम्मत्थिकारणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स पएसेहिं फुडे, एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, आगासत्थिकायस्स वि, पुढवीकारणं फुडे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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