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________________ पन्द्रहवां इन्द्रिय पद-प्रथम उद्देशक - आदर्श आदि द्वार जिनकों उत्पन्न हुए पहला ही समय हुआ है वे अनन्तरोपपन्नक देव कहलाते हैं और जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो चुका है उन्हें परम्परोपपन्नक कहते हैं। जो परम्परोपपन्नक देव पर्याप्तक और उपयोग युक्त होते हैं वे ही निर्जरा पुद्गलों को जान सकते हैं और देख सकते हैं। ___टीका में उपर्युक्त प्रकार से अर्थ किया है परन्तु धारणा से प्रथम देवलोक से लगाकर नवग्रैवेयक तक के सम्यग्दृष्टि देव (एक सागरोपम से अधिक स्थिति वाले वैमानिक देव) चरम निर्जरा के पुद्गलों को जान सकते हैं। मात्र अनुत्तर विमान के देव ही जानते और देखते हों, यह आवश्यक नहीं है। लोक के बहुत संख्याता भागों जितना क्षेत्र व पल्योपम के बहुत संख्याता भागों जितना काल भूत और भविष्य का जानने वाला अवधिज्ञानी ही कर्म द्रव्यों को जान सकता है। ऐसा विशेषावश्यक भाष्य में सिद्धान्तवादी आचार्य श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के द्वारा बताया गया है जो कि आगम से उचित ही है। ... यहाँ 'आहार' से आशय 'लोमाहार' समझना चाहिये। . • १२-१९. आदर्श आदि द्वार अद्दायं भंते! पेहमाणे मणुस्से किं अदायं पेहइ, अत्ताणं पेहइ, पलिभागं पेहइ? . गोयमा! अहायं पेहइ, णो अताणं पेहइ पलिभागं पेहइ। एवं एएणं अभिलावेणं असिं मणिं; दुद्धं, पाणं, तेल्लं, फाणियं, वसं॥४४३॥ __ कठिन शब्दार्थ - अहार्य - आदर्श (दर्पण काँच), पेहमाणे - देखता हुआ, अत्ताणं - अपने आपको, पलिभागं - प्रतिबिम्ब को। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! दर्पण देखता हुआ मनुष्य क्या दर्पण को देखता है ? अपने आपको (शरीर) को देखता है ? अथवा अपने प्रतिबिम्ब को देखता है ? उत्तर - हे गौतम! वह दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखता है। इसी प्रकार दर्पण के सम्बन्ध में जो कथन किया गया है उसी अभिलाप (कथन) के अनुसार क्रमशः असि (तलवार), मणि (एक प्रकार का जवाहिर रत्न), दुग्ध (दूध), पानी, तेल, फाणित (गुड़राब-गीला गुड़) और वसा (चर्बी) के विषय में अभिलाप (कथन) करना चाहिए। विवेचन - दर्पण (कांच) आदि में खुद के शरीर का प्रतिबिम्ब देखता है वह प्रतिछाया रूप है। जब मनुष्य के छाया के पुद्गल दर्पण आदि में संक्रमित होते हैं तब वे स्वयं के शरीर के वर्ण और आकार रूप में परिणत होते हैं वे पुद्गल ही प्रतिबिम्ब शब्द से कहे जाते हैं। किन्ही-किन्ही प्रतियों में'नो अद्धायं पेहइ' ऐसा पाठ भी मिलता है वह भी अपेक्षा से ठीक ही है। जिसका स्पष्टीकरण श्री Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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