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प्रज्ञापना सूत्र
चक्खिदियस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते?
गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स संखिज्जइभागो, उक्कोसेणं साइरेगाओ जोयण सयसहस्साओ। अच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठाई रूवाइं पासइ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित रूपों को एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक दूर के अविच्छिन्न रूपवान् पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है।
घाणिंदियस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते?
गोयमा! जहण्णेणं अंगुल असंखिज्जइभागो, उक्कोसेणं णवहिं जोयणेहितो अच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाइं गंधाइं अग्घाइ, एवं जिब्भिदियस्स वि फासिंदियस्स वि॥४३८॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है?
उत्तर - हे गौतम! घ्राणेन्द्रिय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए गन्धों को और उत्कृष्ट नौ योजनों से आए अविच्छिन्न गन्ध पुद्गल के स्पृष्ट होने पर प्रविष्ट गन्धों को सूंघ लेती है। जैसे घ्राणेन्द्रिय के विषय-परिमाण का निरूपण किया है, वैसे ही जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषयपरिणाम के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्रमश: पांचों इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषय को ग्रहण करने की जघन्य और उत्कृष्ट क्षमता बतायी गई है। जो इस प्रकार है - १. श्रोत्रेन्द्रिय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट बारह योजन से प्राप्त, अव्यवहित (अन्तर रहित अर्थात् अन्य शब्द तथा वायु आदि से जिसकी सामर्थ्य नष्ट नहीं हुई हो) स्पृष्ट, प्रविष्ट (प्रवेश हुआ). शब्द सुनती है। २. चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक लाख योजन से प्राप्त, दीवाल आदि से अव्यवहित, अस्पृष्ट, अप्रविष्ट रूप देखती है। ३. घ्राणेन्द्रिय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट नौ योजन से प्राप्त अव्यवहित, स्पृष्ट, प्रविष्ट पुद्गलों को सूंघती है। रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय घ्राणेन्द्रिय की तरह कह देना चाहिये।
चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय एक लाख योजन का बताया है, वह अप्रकाशित द्रव्यों को देखने की अपेक्षा समझना चाहिये। प्रकाशमान् द्रव्यों को तो इससे कई गुणा दूर से भी देखा जा सकता है। पांचों इन्द्रियों का विषय आत्मांगुल से समझना चाहिये तथा पांचों इन्द्रियों का विस्तार (पृथुत्व) भी
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