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प्रज्ञापना सूत्र
भावार्थ - १. संस्थान २. बाहल्य (जाडाई-स्थूलता), ३. पृथुत्व (विस्तार) ४. कति-प्रदेश (कितने प्रदेश वाला) ५. अवगाढ ६. अल्पबहुत्व ७. स्पृष्ट ८. प्रविष्ट ९. विषय १०. अनगार ११. आहार १२. आदर्श (दर्पण) १३. असि (तलवार), १४. मणि १५. गहरा पानी १६. तैल १७. फाणित (गीला गुड़) १८. वसा (चर्बी) १९. कम्बल २०. स्थूणा (स्तूप या ढूंठ) २१. थिग्गल (आकाश थिग्गल-पैबन्द) २२. द्वीप और उदधि २३. लोक और २४. अलोक। इन चौबीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय-सम्बन्धी प्ररूपणा की जाएगी।
विवेचन - प्रस्तुत दो गाथाओं में इन्द्रिय पद के प्रथम उद्देशक में वर्णित २४ द्वारों का नामोल्लेख किया गया है। .
इन्द्रिय-भेद कइ णं भंते! इंदिया पण्णत्ता?
गोयमा! पंच इंदिया पण्णत्ता। तंजहा-सोइंदिए, चक्खिदिए, घाणिदिए, . जिब्भिदिए, फासिदिए॥४२५॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई है?
उत्तर - हे गौतम! इन्द्रियाँ पांच कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं - १. श्रोत्रेन्द्रिय २. चक्षुरिन्द्रिय ३. घ्राणेन्द्रिय ४. जिह्वेन्द्रिय और ५. स्पर्शनेन्द्रिय। .............
विवेचन - पांचों इन्द्रियों को दो विभागों में विभक्त किया गया है - १. द्रव्येन्द्रिय और २. भावेन्द्रिय। इसमें द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण ये दो भेद होते हैं और भावेन्द्रिय के लब्धि
और उपयोग ये दो भेद होते हैं। यही बात उमास्वाति कृत तत्त्वार्थ. सूत्र में कही गयी है यथा - "निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्धुपयोगी भावेन्द्रियम्" (अध्याय २ सूत्र १७-१८)
प्रत्येक इन्द्रिय के विशिष्ट और विभिन्न संस्थान विशेष (रचना विशेष) को निर्वृत्ति कहते हैं। वह निर्वृत्ति दो प्रकार की होती है - बाह्य निर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वृत्ति। बाह्य निर्वृत्ति पपड़ी आदि जो विविध-विचित्र प्रकार की होती है अत: उसको प्रतिनियत रूप से नहीं कहा जा सकता। जैसे कि मनुष्य के कान दोनों नेत्रों के बगल में होते हैं उसकी भौहें कान के ऊपर के भाग की अपेक्षा सम रेखा में होती हैं किन्तु घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीक्ष्ण होते हैं इत्यादि। जाति भेद से अनेक प्रकार की बाह्य निर्वृत्ति होती है किन्तु आभ्यन्तर निवृत्ति सभी प्राणियों के समान ही होती है। आभ्यंतर निर्वृत्ति की अपेक्षा ही संस्थान आदि की प्ररूपणा आगे के सूत्रों में की गई है। केवल
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