________________ 390 प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! जस्स ओरालिय सरीरं तस्स तेयग सरीरं णियमा अस्थि, जस्स पुण तेयग सरीरं तस्स ओरालिय सरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जिसके औदारिक शरीर होता है, क्या उसके तैजस शरीर होता है? तथा जिसके तैजस शरीर होता है, क्या उसके औदारिक शरीर होता है? उत्तर - हे गौतम! जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके नियम से तैजस शरीर होता है, और जिसके तैजस शरीर होता है, उसके औदारिक शरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता है। एवं कम्मग सरीरं पि। भावार्थ - औदारिक शरीर के साथ तैजस शरीर के संयोग के समान, औदारिक शरीर के साथ . कार्मण शरीर का संयोग भी समझ लेना चाहिए। विवेचन - जिसके औदारिक शरीर होता है उसके तैजस और कार्मण शरीर अवश्य होता है / किन्तु जिस जीव के तैजस और कार्मण शरीर होते हैं उनके औदारिक शरीर होता भी है और नहीं भी होता है क्योंकि देवों और नैरयिकों के तैजस और कार्मण शरीर तो होते हैं किन्तु उनके औदारिक शरीर . नहीं होता है। जबकि तिर्यंचों और मनुष्यों के औदारिक शरीर होता है। जस्स णं भंते! वेउव्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स. आहारगसरीरं तस्स वेउब्वियसरीरं? ... गोयमा! जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं णत्थि, जस्स वि आहारगसरीरं तस्स वि वेउव्वियसरीरं णथि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जिसके वैक्रिय शरीर होता है, क्या उसके आहारक शरीर होता है ? तथा जिसके आहारक शरीर होता है, उसके क्या वैक्रिय शरीर भी होता है ? . उत्तर - हे गौतम! जिस जीव के वैक्रिय शरीर होता है, उसके आहारक शरीर नहीं होता तथा जिसके आहारक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर नहीं होता है। विवेचन - जिसके वैक्रिय शरीर होता है उसके आहारक शरीर नहीं होता और जिसके आहारक शरीर होता है उसके वैक्रिय शरीर नहीं होता, क्योंकि एक समय में दोनों शरीर असंभव है। .. यहाँ पर आहारक शरीर के साथ वैक्रिय शरीर एवं वैक्रिय शरीर के साथ आहारक शरीर नहीं होना बताया है। वह वैक्रिय एवं आहारक शरीर बनाने की अपेक्षा समझना चाहिए। भगवती सूत्र शतक 25 उद्देशक 6-7 में आहारक शरीर वालों के नियमा पांच शरीर होना बताया है। वहाँ पर वैक्रिय लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए अर्थात् सभी आहारक शरीर वालों के नियम से वैक्रिय लब्धि होती ही है। दोनों स्थानों के आगम पाठों की अलग-अलग अपेक्षा होने से परस्पर विरोध नहीं समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org