________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - पुद्गल-चय द्वार 387 विवेचन - कार्मण शरीर तैजस शरीर के साथ नियत सहचारी है। दोनों का अविनाभावी संबंध है। कार्मण शरीर भी तैजस शरीर की तरह जीव प्रदेशों के अनुसार संस्थान वाला है इसलिए जैसे तैजस शरीर के भेद, संस्थान और अवगाहना के विषय में कहा गया है वैसे ही कार्मण शरीर के भेद, संस्थान और अवगाहना के विषय में समझ लेना चाहिए। 4. पुद्गल-चय द्वार ओरालियसरीरस्स णं भंते! कइदिसिं पोग्गला चिजंति? गोयमा! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउद्दिसिं, सिय पंचदिसिं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर के लिए कितनी दिशाओं से आकर पुद्गलों का चय होता है? .. उत्तर - हे गौतम! निर्व्याघात की अपेक्षा से छह दिशाओं से, व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् . तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से औदारिक शरीर के पुद्गलों का चय होता है। - विवेचन - पुद्गलों के एकत्रित होने को चय कहते हैं। निर्व्याघात-व्याघात के अभाव में छह दिशाओं से आये पुद्गलों का चय होता है। तात्पर्य यह है कि त्रस नाड़ी के मध्य भाग में या बाहरी भाग में रहे हुए औदारिक शरीर वाले की एक भी दिशा अलोक से प्रतिबंध वाली नहीं ऐसे निर्व्याघात स्थल में रहे हुए औदारिक शरीर वाले के छह दिशाओं से, पुद्गलों का आगमन होता है। व्याघातअलोक से प्रतिबंध होने पर कदाचित् तीन दिशाओं से कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों का चय होता है, जो इस प्रकार समझना चाहिये - कोई औदारिक शरीर वाला सूक्ष्म जीव जो लोक के सबसे ऊपर के प्रतर में आग्नेय कोण रूप लोकान्त में स्थित हो, जिसके ऊपर लोकाकाश न हो, पूर्व तथा दक्षिण दिशा में भी लोक न हो वह जीव अधोदिशा, पश्चिम दिशा और उत्तरदिशा, इन तीन दिशाओं से पुद्गलों का चय करेगा, क्योंकि शेष तीन दिशाएं अलोक से व्याप्त होती है। जब वही जीव पश्चिम दिशा में रहा हुआ हो तब उसके लिए पूर्व दिशा अधिक हो जाती है इस कारण चार दिशाओं से पुद्गलों का आगमन होगा। जब वह जीव अधोदिशा में द्वितीय आदि किसी प्रतर में पश्चिम दिशा का आश्रय लेकर रहा हुआ हो तब ऊर्ध्वदिशा भी अधिक होती है, केवल दक्षिण दिशा ही अलोक से प्रतिबंध वाली होती है अतः पांच दिशाओं से पुद्गलों का चय-आगमन होता है। वेउव्विय सरीरस्स णं भंते! कइदिसिं पोग्गला चिजंति? गोयमा! णियमा छदिसिं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org