SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार 381 जोयणसहस्सं, उक्कोसेणं अहे जाव अहेसत्तमा पुढवी, तिरियं जाव सयंभूरमणे समुद्दे, उहुंजाव पंडगवणे पुक्खरिणीओ। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत नैरयिक के तैजस शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! मारणांतिक समुद्घात से समवहत नैरयिक के तैजस शरीर की अवगाहना विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीर प्रमाणमात्र तथा आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा से जघन्य सातिरेक (कुछ अधिक) एक हजार योजन की और उत्कृष्ट नीचे की ओर अधःसप्तमनरकपृथ्वी तक, तिरछी यावत् स्वयम्भूरमण समुद्र तक और ऊपर पण्डक वन में स्थित पुष्करिणी (कमल युक्त बावड़ी) तक की अवगाहना होती है। . विवेचन - मारणांतिक समुद्घात से समवहत नैरयिक के तैजस शरीर की अवगाहना लम्बाई की अपेक्षा कुछ अधिक एक हजार योजन की कही गई है जो इस प्रकार समझनी चाहिये - वलयामुख आदि चार महापाताल कलश एक लाख योजन ऊंडे (गहरे) हैं। उनकी ठीकरी एक हजार योजन मोटी है। उन पाताल कलशों के नीचे का तीसरा भाग वायु से और ऊपर का तीसरा भाग पानी से पूरा भरा हुआ है तथा. मध्य का तीसरा भाग कहीं वायु से और कहीं जल से भरा हुआ है। जब कोई सीमन्तक आदि इन्द्रक नरकावासों में विद्यमान पाताल कलश का निकटवर्ती नैरयिक अपनी आयु का क्षय होने से वहाँ से निकल कर पाताल कलश की एक हजार योजन मोटी दीवार का भेदन करके पाताल कलश के दूसरे विभाग में मत्स्य रूप में उत्पन्न होता है तब मारणांतिक समुद्घात करते नैरयिक की कुछ अधिक हजार योजन प्रमाण तैजस शरीर की जघन्य अवगाहना होती है। उत्कृष्ट अवगाहना नीचे सातवीं नरक पृथ्वी तक तथा तिरछी स्वयंभूरमण समुद्र तक तथा ऊँची पंडक वन की पुष्करिणी तक होती है। तात्पर्य यह है कि सातवीं नरक पृथ्वी से लेकर तिरछा स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त और ऊपर पण्डकवन भी पुष्करिणी तक की अवगाहना तभी पाई जाती है जब सातवीं नरक पृथ्वी का नैरयिक स्वयंभूरमण समुद्र के अंत में या पण्डकवन की पुष्करिणी में मत्स्य रूप में उत्पन्न होता है तब यह उत्कृष्ट अवगाहना होती है। पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियस्स णं भंते! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहयस्स तेया सरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! जहा बेइंदिय सरीरस्स। - भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रिय तिर्यंच के तैजस शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy