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________________ २६ प्रज्ञापना सूत्र ५. वेदन - अबाधाकाल के पश्चात् उदय प्राप्त तथा उदीरणा द्वारा उदयावलिका में आये हुए कर्मों का फल भोग करना । ६. निर्जरा कर्मों का फल भोगकर उन्हें अकर्म रूप करना यानी पूर्वकृत कर्मों का फल भोगकर उन्हें नाश करना अर्थात् क्षय करना । KÖHÖHÖHÖHÖN ÖHÖHÖHÖHÖÖ चय, उपचय आदि को समझाने के लिए स्थूल दृष्टि से कंडों (छाणा) का दृष्टान्त दिया जाता है जैसे - १. चय - कंडों या ईंटों को एक स्थान पर रखना २. उपचय - कंडों या ईंटों को व्यवस्थित रूप से चुन (जमा) देना ३. बंध - कंडों या ईंटों को गोबर या मिट्टी आदि के द्वारा चिपका देना ४. उदीरणा - गोबर आदि के लेप को हटाकर कंड़े आदि को वहाँ से शीघ्र हटाने के योग्य बना देना ५. वेदनचुने हुए कंडों को उठाकर आग में डाल देना, ईंट आदि को वहाँ से हटाकर अन्यत्र डालने के लिए रख देना ६. निर्जरा - कंडों को जलाकर राख कर देना तथा ईंटों को अन्यत्र फेंक देना । Jain Education International चय आदि ५ बोल अचलित (आत्म प्रदेशों से संबद्ध) कर्मों में होते हैं । निर्जरा चलित (आत्म प्रदेशों से पृथक् हुए) कर्मों की होती है । इस पद में कषायों सम्बन्धी कुल ३४०० आलापक बताये हैं वे इस प्रकार हैं- सर्व प्रथम कषायों के भेद पूछे हैं तथा बाद में २४ ही दण्डकों में उन भेदों के अस्तित्व की पृच्छा की है। जिसमें क्रोध आदि प्रत्येक कषाय के १६-१६ भेद बताये हैं। बाद में २४ ही दण्डकों में रहे हुए जीवों के क्रोध आदि के १६-१६ भेद किये हैं इस प्रकार पहले समुच्चय क्रोध के १६ भेद तथा बाद में २४ दण्डकों के क्रोध के १६-१६ भेद होने से ४०० प्रश्नोत्तर हो जाते हैं। जिन्हें थोकड़ों वालों ने आलापक कहा है। इस तरह यहाँ समुच्चय जीव नहीं समझ कर समुच्चय क्रोध आदि समझना चाहिये । इस प्रकार समुच्चय : कषाय एवं २४ दण्डकों के कषाय के १६०० भेद कर देने के बाद 'जीव कर्मों का चय आदि किससे करता था' इस प्रकट कर्म चय आदि के निमित्तभूत कषायों के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर है तथा बाद में २४ दण्डकों के लिए भी प्रश्न पूछे हैं। इस प्रकार चय आदि छह बोलों को ३ काल से गुणा करने पर १८ हो जाते हैं। समुच्चय जीव व २४ दण्डक इस प्रकार २५ से गुणा करने पर ४५० भेद क्रोध के बनते हैं। चारों कषायों के ४५०-४५० भेद मिलकर १८०० भेद हो जाते हैं। इस प्रकार १६०० + १८०० = कुल ३४०० आलापक हुए । एकवचन बहुवचन के भेद नहीं होने से ५२०० भेद नहीं बनते हैं। यद्यपि समुच्चय जीव में २४ दण्डक आ गये हैं, तथापि जैसे समुच्चय जीव में १४ गुणस्थान होते हुए भी २४ ही दण्डकों में १४-१४ गुणस्थान नहीं मिलते हैं । अतः उनके पृथक्-पृथक् प्रश्नोत्तर किये हैं। ऊपर वाले ४०० भेद कषायों के होने से उसमें २४ दण्डक से भिन्न समुच्चय जीव नहीं होने से उनमें समुच्चय जीव नहीं बताया गया है । अर्थात् १६०० भेद कषायों के तथा १८०० भेद कषाय सहित जीवों के हैं अतः ३४०० आलापक कहना ही उचित प्रतीत होता है। ॥ पण्णवणाए भगवईए चोद्दसमं कसायपयं समत्तं ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का चौदहवां कषाय पद समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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