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________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार 371 भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! ग्रैवेयक देवों की एक मात्र भवधारणीया शरीर की अवगाहना होती है। वह जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट दो हाथ की है। एवं अणुत्तरोववाइ य देवाण वि, णवरं एक्का रयणी॥५७४॥ भावार्थ -इसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देवों की भी भवधारणीया-शरीर की अवगाहना जघन्य इतनी ही समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी उत्कृष्ट शरीर की अवगाहना एक हाथ की होती है। विवेचन - असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपति वाणव्यंतर, ज्योतिषी तथा सौधर्म एवं ईशान कल्प के देवों की जघन्य भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है जो उत्पत्ति के समय समझनी चाहिये तथा उत्कृष्ट अवगाहना सात हाथ की होती है। उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट लाख योजन की होती है। भवनपति से लेकर अच्युत कल्प तक के देव ही उत्तरवैक्रिय करते हैं इसके ऊपर के देवों में उत्तरवैक्रिय संभव नहीं है। सनत्कुमार देवों के भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट छह हाथ की होती है। माहेन्द्र कल्प के देवों की अवगाहना भी इतनी होती है। 'टीका में देवों की स्थिति के अनुसार उत्कृष्ट अवगाहना में क्रमशः हीन अवगाहना होना बताया गया है। किन्नु आगम पाठों को देखते हुए इस प्रकार से अवगाहना में फरक पड़ना उचित नहीं लगता है। आग्रमकार तो प्रत्येक देवलोक में अपनी अपनी जघन्य से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक अपने अपने देवलोक प्रायोग्य उत्कृष्ट अवगाहना हो जाना बताते हैं अर्थात् सभी देव अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त हो जाते हैं। फिर पर्याप्त होने के अंतर्मुहूर्त तक में अपने अपने देवलोक के जितनी उत्कृष्ट अवगाहना बना लेते हैं। अत: टीकाकार के अनुसार स्थिति के पीछे अवगाहना कम होना उचित नहीं लगता है। आहारग सरीरेणं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! आहारक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! वह एक ही प्रकार का कहा गया है। जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणूस आहारग सरीरे, अमणूस आहारग सरीरे? गोयमा! मणूस आहारग सरीरे, णो अमणूस आहारग सरीरे। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! यदि आहारक शरीर एक ही प्रकार का कहा गया है तो वह आहारक शरीर मनुष्य के होता है अथवा अमनुष्य (मनुष्य के सिवाय) के होता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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