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________________ ३६२ प्रज्ञापना सूत्र वेउब्विय सरीरेणं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा! णाणा संठाणसंठिए पण्णत्ते। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वैक्रिय शरीर किस संस्थान वाला कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! वैक्रिय शरीर नाना संस्थान वाला कहा गया है। वाउक्काइय एगिदिय वेउव्विय सरीरेणं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा! पडागा संठाणसंठिए पण्णत्ते। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वायुकायिक-एकेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! वायुकायिक एकेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर पताका के आकार का कहा गया है। णेरइय पंचिंदिय वेउव्विय सरीरेणं भंते! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते? गोयमा! णेरइय पंचिंदिय वेउब्बिय सरीरे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - भवधारणिजे य उत्तरवेउव्विए या तत्थ णंजे से भवधारणिजे से णं हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते। तत्थ । णंजे से उत्तरवेउव्विए से वि हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक-पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार हैभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें से जो भवधारणीय-वैक्रिय शरीर है, उसका संस्थान हुंडक है तथा जो उत्तरवैक्रिय शरीर है, वह भी हुंडकसंस्थान वाला होता है। विवेचन - भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय - अपने अपने उत्पत्ति स्थान में जीवों द्वारा जो भवधारणीय वैक्रिय शरीर की रचना की जाती है वह एक ही प्रकार की होती है। जिससे स्पष्ट होता है कि भवधारणीय वैक्रिय शरीर बनाते समय बाहर के पुद्गलों की आवश्यकता नहीं रहती है जबकि उत्तरवैक्रिय शरीर बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना नहीं बनता है। शंका - बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करने से ही उत्तरवैक्रिय होता है यह कैसे माना जाय? समाधान - भगवती सूत्र में उत्तरवैक्रिय का वर्णन करते हुए इस प्रकार कथन किया गया है - "देवे णं भंते! महिडिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउवित्तए? गोयमा! णो इणढे समढे। देवे णं भंते! बाहिरए पोग्गलए परियाइत्ता पभू? हंता पभू।" __ हे भगवन्! महर्द्धिक यावत् महानुभाव देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण न करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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