SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान पद - प्रमाण द्वार ३६१ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! यदि असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या पर्याप्तक असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अपर्याप्तक असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है? उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों के भी वैक्रिय शरीर होता है और अपर्याप्तक असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों के भी वैक्रिय शरीर होता है। इसी प्रकार स्तनितकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों तक के दोनों (पर्याप्तक और अपर्याप्तक) भेदों के वैक्रिय शरीर जानना चाहिए। . एवं वाणंमतराणं अट्ठविहाणं, जोइसियाणं पंचविहाणं। __ भावार्थ - इसी तरह आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के तथा पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के । वैक्रिय शरीर होता है। ... वेमाणिया दुविहा-कप्पोवगा कप्पातीता य। कप्पोवगा बारसविहा, तेसिं पि एवं चेव दुइओ भेदो। कप्यातीता दुविहा-गेवेजगा य अणुत्तरोववाइया य, गेवेजगा णवविहा, अणुत्तरोववाइया पंचविहा, एएसि पजत्तापजत्ताभिलावेणं दुगओ भेदो . भाणियव्वो॥५७२॥ भावार्थ - वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत। कल्पोपपन्न बारह प्रकार के हैं। उनके भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, यों दो-दो भेद होते हैं। उन सभी के वैक्रिय शरीर होता है। कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं - ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरौपपातिक। ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के होते हैं और अनुत्तरौपपातिक पांच प्रकार के। इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक के अभिलाप से दो-दो भेद कहने चाहिए। इन सबके वैक्रिय शरीर होता है। .. विवेचन - देवों में सभी प्रकार के पर्याप्तकों, अपर्याप्तकों, भवनपतियों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिषियों और वैमानिकों के वैक्रिय शरीर होता है। यहाँ पर जो वैमानिक देवों के दो प्रकार बताये हैं उनका अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए - १. कल्पोपपन्न - कल्प का अर्थ है मर्यादा अर्थात् जहां पर स्वामी सेवक भाव (छोटे बड़े रूप) की मर्यादा होती है, सभी देव एक समान ऋद्धि एवं सत्ता तथा शक्ति वाले नहीं होते हैं। उन देवों (बारह देवलोकों) को कल्पोपपन्न कहते हैं। २. कल्पातीत - जहाँ पर स्वामी सेवक भाव की मर्यादाएं नहीं हों अर्थात् सभी देव एक सरीखी ऋद्धि एवं शक्ति आदि वाले हों, सभी देव अहमिन्द्र हों। ऐसे नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरौपपातिक देवों को कल्पातीत कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy