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________________ ३४८ प्रज्ञापना सूत्र पज्जत्ताण वि एवं चेव । अपज्जत्ताणं जहण्णेण वि उक्कोसेणं वि अंगुलस्स असंखिज्जइभागं । भावार्थ - - बादर वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। इनके पर्याप्तकों की औदारिक शरीरावगाहना भी इसी प्रकार की समझनी चाहिए। इनके अपर्याप्तकों की औदारिक शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार से अंगुल के असंख्यातवें भाग की समझनी चाहिए। सुहुमाणं पज्जत्तापज्जत्ताण य तिण्ह वि जहण्णेणं वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखिज्जइभागं । भावार्थ - वनस्पतिकायिकों के सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इन तीनों की औदारिक शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों रूप से अंगुल के असंख्यातवें भाग की है। विवेचन - पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों की तरह वनस्पतिकायिक जीवों के भी नौ सूत्र होते हैं परन्तु औधिक (सामान्य) वनस्पति सूत्र में, औघिक वनस्पतिक पर्याप्त सूत्र में, बादर सूत्र में और बादर पर्याप्त सूत्र में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण होती है जो पद्मनाल की अपेक्षा समझनी चाहिए। शेष पांच सूत्रों में औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है । बेइंदिय ओरालियसरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाइं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय के औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय के औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन की है। ÔÓÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒ एवं सव्वत्थ व अपज्जत्तमाणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं जहणणेण वि उक्कोसेण वि । भावार्थ - इसी प्रकार सर्वत्र बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रियों में अपर्याप्तक जीवों की औदारिक शरीरावगाहना भी जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से ) अंगुल के असंख्यातवें भाग की कहनी चाहिए । Jain Education International पज्जत्तगाणं जहेव ओरालियस्स ओहियस्स । भावार्थ - पर्याप्त बेइन्द्रियों के औदारिक शरीर की अवगाहना भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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