SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ प्रज्ञापना सूत्र लिंग धारण करने वाला हो। ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि ही यहाँ लेना चाहिए। १२ वें देवलोक तक उत्पन्न होने में सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के असंयत ग्रहण किये जा सकते हैं। ऊपर की व्याख्या ग्रैवेयक में उत्पन्न होने वाले के लिए समझना चाहिए। जब देशविरत श्रावक भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं जाता है, तो समझना चाहिए कि ऊपर ग्रैवेयक तक जाने के लिए और भी विशेष क्रिया की आवश्यकता है। वह विशेष क्रिया श्रावक की तो है नहीं, अतएव साधु के सम्पूर्ण बाह्यगुण ही हो सकते हैं। उस सम्पूर्ण क्रिया के प्रभाव से ही ऊपरी ग्रैवेयक में उत्पन्न होता है। यद्यपि वह साधु की सम्पूर्ण बाह्य क्रिया करता है, किन्तु परिणाम रहित होने के कारण वह असंयत है। - शंका- वह भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि श्रमण गुणों का धारक कैसे कहा जा सकता है? समाधान - यद्यपि असंयत भव्य-द्रव्य-देव को महामिथ्यादर्शन रूप मोह की प्रबलता होती है, तथापि जब वह साधुओं की चक्रवर्ती आदि अनेक राजा महाराजाओं द्वारा वन्दनपूजन, सत्कार, सम्मान आदि देखता है, तो मन में सोचता है कि यदि मैं भी दीक्षा ले लूँ, तो मेरा भी इसी तरह वन्दन, पूजन, सत्कार, सम्मान आदि होगा। इस प्रकार प्रतिष्ठा मोह से उसमें व्रत पालन की भावना उत्पन्न होती है। वह लोक सन्मान की भावना से व्रतों का पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं। इस कारण वह व्रतों का पालन करता हुआ भी चारित्र के परिणाम से शून्य ही है अर्थात् भावपूर्वक क्रिया (श्रद्धा रहित किन्तु प्ररूपणा एवं स्पर्शना जिनकी शुद्ध है। इस प्रकार के साधुवेश के अनुरूप बाह्य क्रिया) करते हुए भी उनके मिथ्यात्व का उदय होने से वह असंयत (स्वलिङ्गी मिथ्यादृष्टि-प्रथम गुणस्थान वाला) ही गिना गया है। ___गौतम स्वामी का यहाँ पहला प्रश्न है कि - हे भगवन्! असंयत भव्य-द्रव्य-देव यदि देव रूप में उत्पन्न हो तो किस देवलोक तक उत्पन्न हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि - हे गौतम! जघन्य भवनवासियों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट नववें ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है। ___ गौतम स्वामी ने दूसरा प्रश्न यह किया है कि - हे भगवन्! अविराधित संयम वाला अर्थात् दीक्षाकाल से लेकर जिसका चारित्र कभी भंग नहीं हुआ है, अथवा दोषों का शुद्धिकरण करने से व्रतों की शुद्धि हुई है, ऐसा साधु यदि देवलोक में उत्पन्न हो, तो किस देवलोक तक उत्पन्न होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया - हे गौतम! जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होता है। संज्वलन कषाय के अथवा प्रमत्तगुणस्थान के कारण उनमें स्वल्प मायादि दोष संभावित हो सकते हैं, तथापि चारित्र का उपघात (नाश) हो ऐसा आचरण नहीं करते हैं। अतएव सकषाय और सप्रमाद होने पर भी साधु आराधक संयमी हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy