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________________ बीसवां अन्तक्रिया पद - भव्यद्रव्य देव उपपात प्ररूपणा द्वार ३२१ संयमासंयम की विराधना की है, जो असंज्ञी हैं, तापस हैं, कान्दर्पिक हैं, चरक-परिव्राजक हैं, किल्विषिक हैं, तिर्यंच गाय आदि पाल कर आजीविका करने वाले हैं अथवा आजीविक मतानुयायी हैं, जो आभियोगिक हैं, जो स्वलिंगी साधु हैं तथा जो सम्यग्-दर्शन का वमन करने वाले सम्यग्दर्शनव्यापन्न हैं, ये सब यदि देवलोकों में उत्पन्न हों तो कौन कहाँ उत्पन्न हो सकता है? उत्तर - हे गौतम! असंयत भव्य-द्रव्यदेवों का उपपात जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट उपरिम ग्रैवेयक देवों में कहा गया है। जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में, जिन्होंने संयम की विराधना की है, उनका उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में, जिन्होंने संयमासंयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपात जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है, उनका उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में, असंज्ञी जीवों का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों में होता है। तापसों का उपपात जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में, कान्दर्पिकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, चरक-परिव्राजकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ब्रह्मलोककल्प में तथा किल्विषिकों का उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट लान्तककल्प में होता है। तैरश्चिकों (तिर्यंचों) का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में, आजीविकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में होता है, इसी प्रकार आभियोगिक साधकों का उपपात भी जान लेना चाहिए। स्वलिंग (समान वेष वाले) साधुओं का तथा दर्शन-व्यापन्न व्यक्तियों का उपपात जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट उपस्मि-ग्रैवेयकदेवों में होता है। विवेचन - जो चारित्र के परिणाम से शून्य हो वह 'असयंत' कहलाता है। जो देव होने के योग्य है वह 'भव्य-द्रव्य-देव' कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो चारित्र पर्याय से रहित है और इस समय तक देव नहीं हुआ है, किन्तु आगे देव होने वाला है वह 'असयंत-भव्य-द्रव्य' देव है। . कोई यहाँ पर असंयत भव्य द्रव्य-देव का अर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि करते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि इसी सूत्र में असंयत भव्य-द्रव्य-देव की उत्पत्ति ऊपर के ग्रैवेयक तक बतलाई है, किन्तु असंयत सम्यग्दृष्टि की तो बात ही क्या है, देशविरत श्रावक भी बारहवें देवलोक से ऊपर नहीं जा सकता है। ऐसी अवस्था में असंयत सम्यग्दृष्टि ऊपर के ग्रैवेयक तक कैसे जा सकता है ? . यहाँ पर कोई असंयत भव्य-द्रव्य-देव का अर्थ निह्नव करते हैं, यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निह्नव का पाठ आगे इसी सूत्र में अलग आया है। अतः यहाँ पर असंयत भव्य-द्रव्य देव का अर्थ "मिथ्यादृष्टि' लेना चाहिए। असंयत भव्य-द्रव्य-देव वही होगा जो साधु के गुणों को धारण करने वाला, साधु की सम्पूर्ण समाचारी का पालन करने वाला, किन्तु जिसमें आन्तरिक साधुता न हो, केवल द्रव्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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