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प्रज्ञापना सूत्र
२. मान - मान मोहनीय कर्म के उदय से जाति आदि गुणों में अहंकार बुद्धि रूप आत्मा के परिणाम को मान कहते हैं। मान वश जीव में छोटे बड़े के प्रति उचित नम्र भाव नहीं रहता है। मानी जीव अपने को बड़ा समझता है और दूसरों को तुच्छ समझता हुआ उनकी अवहेलना करता है। गर्व वश वह दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर सकता।
३. माया - माया मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन, काया की कुटिलता द्वारा परवञ्चना अर्थात् दूसरे के साथ कपटाई, ठगाई, दगारूप आत्मा के परिणाम विशेष को माया कहते हैं।
४. लोभ - लोभ मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्यादि विषयक इच्छा, मूर्छा, ममत्व भाव एवं तृष्णा अर्थात् असन्तोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं।
नैरयिक आदि में कषाय णेरइयाणं भंते! कइ कसाया पण्णत्ता?
गोयमा! चत्तारि कसाया पण्णत्ता। तंजहा - कोह कसाए, माण कसाए, माया कसाए, लोभ कसाए। एवं जाव वेमाणियाणं॥४१९॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों में कितने कषाय होते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीवों में चारों कषाय होते हैं। वे इस प्रकार हैं- क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय और लोभ कषाय। इसी प्रकार वैमानिक देवों तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में चारों कषाय पाए जाते हैं।
विवेचन - समुच्चय जीव और चौबीस दंडक में चारों कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ पाए जाते हैं।
कक्षायों के प्रतिष्ठान कइ पइट्ठिए णं भंते! कोहे पण्णत्ते?
गोयमा! चउ पइट्ठिए कोहे पण्णत्ते। तंजहा - आय पइट्ठिए, पर पइट्ठिए, तदुभय पइट्ठिए, अप्पइटिए। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं दंडओ। एवं माणेणं दंडओ, मायाए दंडओ, लोभेणं दंडओ॥ ४२०॥
कठिन शब्दार्थ - पइट्ठिए - प्रतिष्ठित (आश्रित रहा हुआ)
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्रोध कितनों पर प्रतिष्ठित (आश्रित) है? अर्थात् किस-किस आधार पर रहा हआ है? .
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