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बीसवां अन्तक्रिया पद - उद्वर्तन द्वार
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से निकल कर क्या सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है?
उत्तर - हे गौतम! उनमें से कोई पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है। जे णं भंते! उववजेजा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए? गोयमा! णो इणढे समढे।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! उनमें से जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, क्या वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एवं आउक्काइयासु णिरंतरं भाणियव्वं जाव चउरिदिएसु।
भावार्थ - इसी प्रकार की वक्तव्यता अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों तक में निरन्तर कहना चाहिए। · पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिय मणुस्सेसु जहा जेरइए।
भावार्थ - पृथ्वीकायिक जीवों की पृथ्वीकायिकों में से निकल कर सीधे पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों और मनुष्यों में उत्पत्ति के विषय में नैरयिक की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए।
वाणमंतर जोइसिय वेमाणिएसु पडिसेहो। भावार्थ-वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों में पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए।
एवं जहा पुढवीकाइओ भणिओ तहेव आउक्काइओ वि जाव वणस्सइकाइओ वि भाणियव्वो॥५६२॥
. भावार्थ - जैसे पृथ्वीकायिक की चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक के विषय में भी कहना चाहिए।
तेउक्काइए णं भंते! तेउक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववजेजा? गोयमा! णो इणद्वे समढे।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर (निकल कर) क्या सीधा नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि। भावार्थ - इस प्रकार की वक्तव्यता असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक की उत्पत्ति के
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