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________________ ३०० प्रज्ञापना सूत्र . एवं आउकाइया वि चत्तारि, वणस्सइकाइया छ, पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया दस, तिरिक्खजोणिणीओ दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीसं, वाणमंतरा दस, वाणमंतरीओ पंच, जोइसिया दस, जोइसिणीओ वीसं, वेमाणिया अट्ठसयं, वेमाणिणीओ वीसं॥५५८॥ भावार्थ - इसी प्रकार अप्कायिक आदि जघन्य तो एक समय में एक दो या तीन और उत्कृष्ट अप्कायिक भी चार अन्तक्रिया करते हैं, वनस्पतिकायिक छह, पंचेन्द्रिय तिर्यंच दस, पंचेन्द्रिय तिर्यंच स्त्रियाँ दस, मनुष्य दस, मनुष्यनियां बीस, वाणव्यन्तर देव दस, वाणव्यन्तर देवियाँ पांच, ज्योतिषी देव दस, ज्योतिषी देवियाँ बीस, वैमानिक देव एक सौ आठ, वैमानिक देवियाँ बीस अन्तक्रिया करती है। विवेचन - तीसरे द्वार में अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले नैरयिक आदि एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट कितनी संख्या में अन्तक्रिया करते हैं ? इसकी प्ररूपणा की गई है। ___ यद्यपि वनस्पतिकाय से निकले हुए एक समय में एक, दो, तीन और उत्कृष्ट छह सिद्ध हो सकते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय से निकले हुए उत्कृष्ट चार सिद्ध हो सकते हैं। तथापि पृथ्वी एवं अप्काय से निकलने वाले बार-बार सिद्ध होते रहते हैं। वनस्पति से निकले हुए कम बार सिद्ध होते हैं। अतः पृथ्वी, पानी से निकले हुए अधिक सिद्ध होना बताया है। वनस्पति के मूल आदि दस ही भेदों से निकले हुए सिद्ध हो सकते हैं या नहीं? इसका वर्णन देखने में नहीं आया है। पृथ्वी, पानी, वनस्पति में एक भवावतारी जीव संख्याता मिल सकते हैं। ज्यादा संभावना नहीं लगती है। ४. उद्वर्तन द्वार णेरइए णं भंते! जेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववजेजा? गोयमा! णो इणढे समढे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! नैरयिक जीव, नैरयिकों में से उद्वर्तन (निकल) कर क्या सीधा नैरयिकों में उत्पन्न होता है? उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। णेरइए णं भंते! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववजेजा? .. गोयमा! णो इणढे समढे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव नैरयिकों में से निकल कर क्या सीधा असुरकुमारों में उत्पन्न हो सकता है? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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