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________________ २९६ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे. भगवन्! क्या नैरयिक नैरयिकों (नरकगति) में रहता हुआ अन्तक्रिया करता है? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। णेरइए णं भंते! असुरकुमारेसु अंतकिरियं करेजा? गोयमा! णो इणढे समढे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या नैरयिक असुरकुमारों में अन्तक्रिया करता है ? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एवं जाव वेमाणिएसु।णवरं मणुस्सेसु अंतकिरियं करेज त्ति पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगइए णो करेजा। भावार्थ - इसी प्रकार नैरयिक जीवों की वैमानिकों तक में अन्तक्रिया की असमर्थता समझ लेनी चाहिए। प्रश्न - हे भगवन् ! विशेष प्रश्न यह है कि नैरयिक क्या मनुष्यों में आकर अन्तक्रिया करता है? . उत्तर - हे गौतम! कोई नैरयिक अन्तक्रिया करता है और कोई नहीं करता। एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिए। एवमेव चउवीसं दंडगा भवंति॥५५६॥ भावार्थ - इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के विषय में भी समझ लेना चाहिए। इसी तरह चौवीस दण्डकों में से प्रत्येक का.चौवीस दण्डकों में अन्तक्रिया का निरूपण करना चाहिए। विवेचन - जिस क्रिया के पश्चात् फिर कभी दूसरी क्रिया न करनी पड़े, वह 'अन्तक्रिया' कहलाती है अथवा कर्मों का सर्वथा अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है। इन दोनों व्याख्याओं का आशय एक ही है कि - समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करना। प्रश्न यह है कि क्या जीव संसार में ही रहता है या संसार का अन्त कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए वर्णन इस प्रकार हैं - प्रश्न - हे भगवन्! क्या जीव अन्तक्रिया करता है? उत्तर - हे गौतम! कोई जीव करता है और कोई जीव नहीं करता है। - प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर - हे गौतम! भव्य जीव अन्तक्रिया करते हैं और अभव्य जीव अन्तक्रिया नहीं करते हैं। इस तरह नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक में कहना चाहिए। किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि मनुष्य के सिवाय अन्य किसी भी दण्डक के जीव उसी भव में अन्तक्रिया नहीं कर सकते। वे नरकादि दण्डकों से निकल कर मनुष्य भव में आकर फिर अन्तक्रिया कर सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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