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वीसइमं अंतकिरियापयं बीसवां अन्तक्रिया पद
मोक्ष में जाने के लिए जो तप संयम रूप क्रिया की जाती है उसे अन्तक्रिया कहते हैं। इसके अन्तर और परम्पर ऐसे दो भेद किये गये हैं। उसी भव में मोक्ष जाने की क्रिया को अनन्तर अन्तक्रिया कहते हैं और अनेक भवों में मोक्ष जाने की क्रिया को परम्पर अन्तक्रिया कहते हैं। उसी भव में सभी कर्मों का अन्त कर देने वाला अन्तकृत कहलाता है। कर्मों का अन्त करने की क्रिया को अन्तक्रिया कहा जाता है। इस अन्तक्रिया का विचार प्रस्तुत पद में २४ दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों द्वारा समझाया गया है। उन द्वारों का वर्णन करने वाली गाथा इस प्रकार है
णेरइय अंतकिरिया अणंतरं एगसमय उव्वट्टा। तित्थगर चक्कि बल वासुदेव मंडलिय रयणा य॥दारगाहा॥
भावार्थ - अन्तक्रियासम्बन्धी १० द्वार - १. नैरयिकों की अन्तक्रिया २. अनन्तरागत जीव अन्तक्रिया ३. एक समय में अन्तक्रिया ४. उद्वर्तन - जीवों की उत्पत्ति ५. तीर्थंकर द्वार ६. चक्रवर्ती द्वार ७. बलदेव द्वार ८. वासुदेव द्वार ९. माण्डलिक द्वार और १०. रत्न द्वार-चक्रवर्ती के सेनापति आदि।
१. अंतक्रिया द्वार जीवेणं भंते! अंतकिरियं करेजा? गोयमा! अत्थेगंइए करेजा, अत्थेगइए णो करेजा।
कठिन शब्दार्थ - अंतकिरियं - अन्तक्रिया-जन्म मरण से छूट कर इस संसार का अन्त करने वाली क्रिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या जीव अन्तक्रिया करता है? उत्तर - हाँ गौतम! कोई जीव अन्तक्रिया करता है और कोई जीव नहीं करता है। एवं णेरइए जाव वेमाणिए।
भावार्थ - इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।
णेरइए णं भंते! णेरइएसु अंतकिरियं करेजा? गोयमा! णो इणढे समढे।
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