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अठारहवाँ कायस्थिति पद - भाषक द्वार
सपज्जवसिए । तत्थ णं जे से साइए वा सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो ॥ दारं १५ ।। ५४७ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अभाषक जीव अभाषक रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! अभाषक दो प्रकार के कहे गये हैं - १. सादि - अपर्यवसित और २. सादिसपर्यवसित। उनमें से जो सादि- सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल पर्यन्त अभाषक रूप में रहते हैं। ॥ पन्द्रहवाँ द्वार ॥ १५ ॥
विवेचन - अभाषक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. सादि अनन्त - जिन जीवों के अभाषक बनने की आदि तो है किन्तु फिर कभी भी उनका अन्त नहीं अर्थात् वे जीव कभी भी भाषक नहीं बनेंगे। ऐसे सिद्ध भगवान् के जीव सादि अनन्त अंभाषक कहलाते हैं । २. सादि सान्त जो भाषक हो कर पुनः अभाषक होते हैं वे सादि सान्त अभाषक कहलाते हैं । सादि सान्त अभाषक की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त्त कही गयी है जो इस प्रकार है - अभाषक जीव कुछ देर भाषक रह कर पुनः अभाषक बन जाता है जैसे - बेइन्द्रिय आदि भाषक जीव एकेन्द्रिय आदि अभाषक जीवों में उत्पन्न होकर और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रह कर पुनः बेइन्द्रिय आदि में उत्पन्न होता है उस समय जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक अभाषक रहता है । उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनंतकाल ) पर्यंत जीव लगातार अभाषक रहता है।
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नोट - अभाषक की कायस्थिति में हस्त लिखित प्रज्ञापना सूत्र की प्रति (टब्बा ) में तथा राजेन्द्र कोष में दो भङ्ग ही बताये गये हैं इनमें से पहला भङ्ग सिद्धों की अपेक्षा से होता है और दूसरा भङ्ग संसारी जीवों की अपेक्षा से होता है । कायस्थिति के पाठ को देखते हुए ये दो भङ्ग ही उचित प्रतीत होते हैं। सैलाना से प्रकाशित अनङ्गपविट्ठ सुत्ताणि के जीवाजीवाभिगम सूत्र के पृष्ठ २९२ में भी अभाषक के वर्णन में दो भांगे ही बतलाये गये हैं । आगमोदय समिति वाली प्रति (टीका) में तथा इसी के आधार से अन्य भी अनेकों प्रतियों में तीन भांगे बताये गये हैं, वे उचित नहीं लगते हैं। टीका में इसी कारण से अशुद्धि हो गयी हो फिर उसी के आधार से मूल पाठ में भी तीनों भङ्गों को रख दिया गया हो ऐसी संभावना लगती है ।
अभाषक में तीन भाङ्गे होना उचित नहीं लगता है क्योंकि सिद्ध भगवान् भी अभाषक होते हैं उनमें " साइया अपज्जवसिया" भङ्ग होता है । वह भंग तो तीनों भंगों में तो आया ही नहीं है, जबकि वह भङ्ग होना आवश्यक है । यदि आगमकार को ये तीन भङ्ग इष्ट होते तो तिर्यंच, एकेन्द्रिय, वनस्पतिकाय, काय योगी, नपुंसक वेद, सूक्ष्म और असंज्ञी आदि बोलों में भी ये तीनों भङ्ग बताते परन्तु ऐसा बताया नहीं है अतः अभाषक में भी तीन भङ्ग कहना उचित नहीं है तथा दो भङ्ग कहना उचित प्रतीत होता है।
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