________________
२८२
प्रज्ञापना सूत्र
कार्मण शरीर योगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात्॥४॥".
अर्थात् - प्रथम समय दण्ड, दूसरे समय कपाट, तीसरे समय मंथान और चौथे समय लोक. व्यापी होता है। पांचवें समय में आंतरों का संहरण और छठे समय में मंथान का संहरण होता है। सातवें समय में कपाट और उसके बाद आठवें समय में दण्ड का संहरण होता है। जीव प्रथम और आठवें समय में औदारिक काययोगी होता है। सातवें, छठे और दूसरे समय में औदारिक मिश्र योग वाला और चौथे, पांचवें और तीसरे इन तीन समयों में कार्मण काय योगी होता है और उस समय जीव अवश्य अनाहारक होता है।
अजोगि भवत्थ केवलि अणाहारए णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं वि उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं॥दारं १४॥५४६॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक कितने काल तक अयोगिभवस्थ-केवली-अनाहारक रूप में रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक अयोगिभवस्थकेवली अनाहारक रूप .. में रहता है।
विवेचन - सभी अयोगी भवस्थ केवली अनाहारक जीव (चौदहवें गुणस्थान वाले) समान स्थिति वाले ही होने की संभावना लगती है क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में इनकी स्थिति मध्यम रीति से पांच लघु अक्षरों (अ, इ, उ, ऋल) के उच्चारण करने जितनी बताई है। .
॥ चौदहवां द्वार॥१४॥ १५. भाषक द्वार भासए णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! भाषक जीव कितने काल तक भाषक रूप में रहता है ? ... उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक भाषक रूप में रहता है।
विवेचन - भाषक (बोलने वाला) की जघन्य काय स्थिति एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की वचन योगी की अपेक्षा समझनी चाहिये। .
अभासए णं पुच्छा? गोयमा! अभासए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org