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________________ २७४ प्रज्ञापना सूत्र ÖZÖKŐKÖHÖN ÖHÖNỘI भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! विभंगज्ञानी कितने काल तक विभंगज्ञानी के रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक वह विभंगज्ञानी - पर्याय में लगातार बना रहता है। ॥ दसवाँ द्वार॥ १० ॥ विवेचन - सम्यग्दृष्टि होने से कोई अवधिज्ञानी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य या देव मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के प्रभाव से उसका अवधिज्ञान विभंगज्ञान रूप में परिणत हो जाता है क्योंकि “आद्यत्रयज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम्" - आदि के तीन ज्ञान मिथ्यात्व सहित अज्ञान रूप होते हैं - ऐसा शास्त्र वचन है । इस प्रकार मिथ्यात्व प्राप्ति के अनन्तर समय में ही उस विभंगज्ञानी तिर्यंच मनुष्य या देव की मृत्यु हो जाती है तब विभंगज्ञान एक समय तक ही रहता हैं। जब कोई मिथ्यादृष्टि तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य करोड़ पूर्व की आयु के कुछ वर्ष व्यतीत हो जाने पर विभंगज्ञानी होता है और अप्रतिपाती विभंगज्ञान सहित ही ऋजुं गति से सातवीं नरक पृथ्वी में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नैरयिक बनता है उस समय विभंगज्ञानी की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम की होती है। तत्पश्चात् वह जीव या तो सम्यक्त्व को प्राप्त करके अवधिज्ञानी बन जाता है या उसका विभंगज्ञान सर्वथा नष्ट हो जाता है । ११. दर्शन द्वार चक्खुदंसणी णं भंते! पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं । भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन् ! चक्षुदर्शनी कितने काल तक चक्षुदर्शनी पर्याय में रहता है ? उत्तर- हे गौतम! चक्षुदर्शनी जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक चक्षुदर्शनी पर्याय में रहता है। विवेचन - जब कोई तेइन्द्रिय आदि जीव चउरिन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो कर और वहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रह कर पुन: तेइन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो जाता है तब चक्षुदर्शनी की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त होती है । उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम की स्थिति चउरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और नैरयिक आदि भवों में भ्रमण करने के कारण समझनी चाहिये । Jain Education International यद्यपि द्रव्येन्द्रियों के अभाव में वाटे बहते जीव में चक्षुदर्शन नहीं होते हुए भी उसमें भावेन्द्रियं के सद्भाव (होने) के कारण आगे द्रव्येन्द्रिय का निर्माण होता ही है तब चक्षुदर्शन की प्राप्ति निरन्तर साधिक (८) आठ सागरोपम तक हो सकती है। इस प्रकार चक्षु दर्शन वाला जीव चउरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय का काल मिलाकर साधिक हजार सागरोपम तक रह सकता है। अतः चक्षुदर्शनी की उत्कृष्ट कायस्थिति साधिक हजार सागरोपम की बताई गयी है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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