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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - ज्ञान द्वार २७३ केवल णाणी णं पुच्छा? गोयमा! साइए अपज्जवसिए। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी, केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! केवलज्ञानी-पर्याय सादि-अपर्यवसित होती है। विवेचन - केवलज्ञानी की कायस्थिति सादि अनन्त होती है क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद वह कभी भी जाता नहीं है अर्थात् सदा काल तक रहता है। अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी पुच्छा? गोयमा! अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी तिविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपजवसिए, साइए वा सपजवसिए। तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवड्ड पोग्गल परियट्टू देसूणं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक निरन्तरस्व-पर्याय में रहते हैं? .. उत्तर - हे गौतम! अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तीन-तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अनादि-अपर्यवसित २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक अर्थात् काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन तक निरन्तर स्व-स्वपर्याय में रहते हैं। विवेचन - अज्ञानी जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अनन्त - जिन्हें कभी भी सम्यग्ज्ञान होने वाला नहीं है वे अनादि अनन्त अज्ञानी हैं। २. अनादि सान्त - जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति होगी वे अनादि सान्त और ३. सादि सान्त - जो ज्ञान प्राप्त कर फिर से मिथ्यात्व प्राप्ति के कारण अज्ञानी होंगे वे सादि सान्त है। सादि सान्त की स्थिति जघन्य अंतमुहूर्त होती है क्योंकि इसके बाद सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के कारण अज्ञान नष्ट हो जाता है। उत्कृष्ट अनंतकाल तक वह अज्ञानी रहता है। अनंत काल यानी अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के बाद उस जीव को अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और उसका अज्ञान दूर हो जाता है। - विभंगणाणी णं भंते! पुच्छा? गाथमा! जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियाई॥दारं १०॥॥५४२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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