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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - ज्ञान द्वार २७१ जाती है। उत्कृष्ट अनंतकाल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है। इसके बाद उसे सम्यक्त्व प्राप्त होती है। अनन्तकाल में काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी और क्षेत्र से कुछ न्यून अर्द्ध पुद्गल परावर्तन समझना चाहिए। यहाँ क्षेत्र पुद्गल परावर्तन ग्रहण करना चाहिए किन्तु द्रव्य पुद्गल परावर्तन आदि नहीं समझना चाहिए। सम्मामिच्छादिट्ठी णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ दारं ९॥५४१॥ भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि कितने काल तक सम्यग्मिथ्यादृष्टि बना रहता है ? उत्तर - हे गौतम! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्मिथ्यादृष्टि पर्याय में रहता है। विवेचन - जिसकी सम्यग्-यथार्थ और मिथ्या-विपरीत दृष्टि है वह सम्यमिथ्या दृष्टि (मिश्र दृष्टि) कहलाता है। सम्यग्-मिथ्यादृष्टि की काय स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। इसके बाद स्वभाव से ही मिश्रदृष्टि नहीं रहती। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिश्रदृष्टि वाला जीव या तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है या मिथ्यादृष्टि हो जाता है। १०. ज्ञान द्वार ... णाणी णं भंते! णाणित्ति कालओ केवच्चिर होइ? ___गोयमा! णाणी दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपजवसिए। तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छाव४ि सागरोवमाइं साइरेगाई। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानी पर्याय में निरन्तर रहता है? उत्तर - हे गौतम! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं - १. सादि-अपर्यवसित और २. सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक लगातार ज्ञानीरूप में बना रहता है। विवेचन - जिसमें ज्ञान है वह ज्ञानी कहलाता है। ज्ञानी दो प्रकार के कहे गये हैं - १. सादि अनन्त और २. सादि सान्त। इनमें केवल ज्ञान की अपेक्षा सादि अनन्त है क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद जाता नहीं है और शेष ज्ञानों की अपेक्षा सादि सान्त है क्योंकि शेष ज्ञान अमुक काल पर्यंत ही होते हैं। सादि सान्त ज्ञानी अवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक ही रहती है इसके पश्चात् मिथ्यादृष्टि के उदय से ज्ञान परिणाम का विनाश हो जाता है। उत्कृष्ट कायस्थिति कुछ अधिक ६६ सागरोपम की कही है वह सम्यग्दृष्टि के समान समझ लेनी चाहिये क्योंकि सम्यग्दृष्टि ही ज्ञानी होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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