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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - काय द्वार २५३ भावार्थ - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। पजत्तयाण वि एवं चेव। भावार्थ - इन पूर्वोक्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि के पर्याप्तकों के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। विवेचन - यहाँ पर सूक्ष्म के सात बोलों में सूक्ष्म वनस्पतिकाय और सूक्ष्म निगोद के दो बोल बताये गये हैं। उनका आशय इस प्रकार समझना चाहिए- सूक्ष्म वनस्पतिकाय के बोल में सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीवों की कायस्थिति बताई गयी है। एवं सूक्ष्म निगोद के बोल में सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीवों के शरीर की प्रधानता से कायस्थिति बताई गयी है। अर्थात् दोनों बोलों में जीव की कायस्थिति ही होने पर भी एक बोल में जीव की प्रधानता ली गयी है। दूसरे बोल में शरीर की प्रधानता ली गयी है। बायरे णं भंते! बायरेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिजं कालं, असंखिज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखिजइभाग। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन्! बादर जीव, बादर जीव के रूप में लगातार कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! बादर जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक अर्थात् काल से असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक, क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण बादर जीव के रूप में लगातार रहता है। . बायर पुढविकाइए णं भंते! पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तरि सागरोवम कोडाकोडीओ। ____ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बादर पृथ्वीकायिक बादर पृथ्वीकायिक रूप में कितने काल तक लगातार रहता है? उत्तर - हे गौतम! बादर पृथ्वीकायिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम तक बादर पृथ्वीकायिक रूप में लगातार रहता है। एवं बायर आउक्काइए वि बायर तेउकाइए वि, बायर वाउकाइए वि। भावार्थ - इसी प्रकार बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक एवं बादर वायुकायिक के विषय में भी समझना चाहिए। . बायर वणस्सइकाइए णं भंते! बायर वणस्सइकाइए त्ति पुच्छा? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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