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________________ २४२ प्रज्ञापना सूत्र Modvernancouvernment उत्तर - हे गौतम! अपर्याप्तक नैरयिक जीव अपर्याप्तक नैरयिक पर्याय में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इसी प्रकार तिर्यंचयोनिक-तिर्यंचनी, मनुष्य-मनुष्यणी, देव और देवी की अपर्याप्तक अवस्था अन्तर्मुहूर्त तक ही रहती है। विवेचन - चारों गति के अपर्याप्तक जीवों की जघन्य उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है। . णेरइयपजत्तए णं भंते! णेरइयपजत्तए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहूत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहूत्तूणाई। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक नैयिक कितने काल तक पर्याप्तक नैरयिक पर्याय में रहता है? उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक नैरयिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम तक पर्याप्तक नैरयिक रूप में बना रहता है। विवेचन - पर्याप्तक नैरयिक की काय स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की कही है क्योंकि प्रथम का अंतर्मुहूर्त अपर्याप्त अवस्था में व्यतीत होने के कारण अंतर्मुहूर्त न्यून कहा गया है। तिरिक्खजोणिय पजत्तए णं भंते! तिरिक्खजोणिय पजत्तए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहूत्तूणाई। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक तिर्यंचयोनिक कितने काल तक पर्याप्तक तिर्यंच रूप में रहता है? उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक तिर्यंच योनिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम तक पर्याप्तक तिर्यंच रूप में रहता है। विवेचन - पर्याप्तक तिर्यंच योनिक की उत्कृष्ट कायस्थिति उत्कृष्ट आयुष्य वाले देव कुरु आदि क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तिर्यंचों की अपेक्षा समझनी चाहिए। एवं तिरिक्खजोणिणिपजत्तिया वि। भावार्थ - इसी प्रकार पर्याप्तक तिर्यंचनी की कायस्थिति के विषय में भी समझना चाहिए। एवं मणुस्से वि मणुस्सी वि एवं चेव। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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