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अठारहवाँ कायस्थिति पद - गति द्वार
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! देव कितने काल तक देव बना रहता है ?
उत्तर - हे गौतम! जैसा नैरयिक के विषय में कहा, वैसा ही देव की कायस्थिति के विषय में भी कहना चाहिए ।
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विवेचन - देवों की कायस्थिति जघन्य १० हजार वर्ष उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की है क्योंकि देव अपने भव से च्यव कर पुनः तत्काल देव रूप में उत्पन्न नहीं होते। जैसा कि कहा है- 'न देवो देवेसु उववज्जइ' - देव, देव में उत्पन्न नहीं होते, ऐसा शास्त्र वचन है। इसलिए देवों की जो भवस्थिति होती है वही कायस्थिति होती है।
देवी णं भंते! देवी त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाई । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! देवी, देवी के पर्याय में कितने काल तक रहती है ?
उत्तर - हे गौतम! देवी जघन्य दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम तक देवी रूप में रहती है।
विवेचन - देवियों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति ५५ पल्योपम की कही गयी है क्योंकि देवियों की उत्कृष्ट भवस्थिति इतनी ही है। यह कथन ईशान देवलोक की देवी की अपेक्षा समझना, इसके अलावा दूसरी देवी की स्थिति इतनी नहीं होती है।
सिद्धे णं भंते! सिद्धेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
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गोयमा! साइए अपज्जवसिए ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्ध जीव कितने काल तक सिद्ध पर्याय से युक्त रहता है ? उत्तर - हे गौतम! सिद्ध जीव सादि अपर्यवसित (अनन्त) होता है। अर्थात् - सिद्ध पर्याय सादि है, किन्तु अन्त रहित है।
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विवेचन सिद्ध की कायस्थिति सादि अनन्त है क्योंकि सिद्धत्व पर्याय का क्षय नहीं होता। जन्म मरण का कारण रागादि है जो सिद्ध भगवान् में नहीं होते क्योंकि रागादि के निमित्तभूत कर्म परमाणुओं का वे सर्वथा क्षय कर चुके हैं, अतः सिद्ध पर्याय की आदि है किन्तु अन्त नहीं ।
णेरइय अपज्जत्तए णं भंते! णेरइय अपज्जत्तए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, एवं जाव देवी अपज्जत्तिया । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अपर्याप्तक नैरयिक जीव अपर्याप्तक नैरयिक पर्याय में कितने काल तक रहता है ?
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