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सत्तरहवाँ लेश्या पद-पांचवां उद्देशक लेश्याओं के परिणाम भाव
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करती हुई किंचित् विशुद्ध हो जाती है इसीलिए कहा गया है कि उस रूप में रहती हुई कृष्ण लेश्या उत्कर्ष को प्राप्त होती है किन्तु शुक्ल लेश्या से पद्म लेश्या हीन परिणाम वाली होने से पद्म लेश्या की निकटता से उसके आकार भाव या प्रतिबिम्ब मात्र को धारण करके कुछ अविशुद्ध हो जाती है यानी अपकर्ष को प्राप्त हो जाती है।
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नैरयिक एवं देवों में द्रव्य लेश्या अवस्थित होती है। भाव लेश्या कभी थोड़ी देर ( अन्तर्मुहूर्त) के लिए बदल सकती है फिर वापिस द्रव्य लेश्या जैसी भाव लेश्या बन जाती है। जैसे तेज वर्षा होने पर वर्षा का पानी एवं पडनाल का पानी दोनों बराबर चालू रहते हैं परन्तु अचानक वर्षा बन्द हो जाने पर भी परनाल तो कुछ समय तक बहना चालू ही रहता है। वर्षा थोड़ी देर बाद पुनः चालू हो जाने पर भी परनाल की वही स्थिति बनी रहती है । इसी प्रकार वर्षा होने के समान यहाँ पर भाव लेश्या समझना चाहिए तथा परनाल पड़ने की तरहं द्रव्य लेश्या समझना चाहिए।
जैसे नाली में काला पानी बहता है उसमें दूसरा साफ पानी भी मिलकर वैसा ही काला बन जाता है। वैसे ही नाली के पानी के समान द्रव्य लेश्या एवं साफ पानी के समान भाव लेश्या समझना चाहिए।
॥ पण्णवणाए भगवईए सत्तरसमे लेस्सापए पंचमो उद्देसओ समत्तो ॥ ॥ सत्तरहवें लेश्यापद का पंचम उद्देशक समाप्त ॥
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