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प्रज्ञापना सूत्र
कण्हलेस्सा णं सा, णो खलु सा णीललेस्सा, तत्थ गया उस्सक्कड, से तेणद्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-'कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ।'
कठिन शब्दार्थ - आगार भाव मायाए - आकार भाव (मणी आदि का आकार) मात्र से अथवा दर्पण आदि के बिना होने वाली छाया से, पलिभाग भाव मायाए - प्रतिभाग भाव (प्रतिबिम्बझांई-छाया) मात्र से अथवा दर्पण आदि में पड़ने वाली छाया, उस्सक्कइ - उत्कर्ष को प्राप्त होती है।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या कृष्ण लेश्या नील लेश्या को प्राप्त होकर नील लेश्या के स्वभाव रूप में तथा उसी के वर्ण रूप में, गन्ध रूप में, रस रूप में एवं स्पर्श रूपं में बार-बार परिणत नहीं होती है?
उत्तर - हाँ, गौतम! कृष्ण लेश्या को प्राप्त होकर न तो उनके स्वभाव रूप में, न उसके वर्ण रूप में, न इसके गन्ध रूप में, न उसके रस रूप में और न उसके स्पर्श रूप में बार-बार परिणत होती हैं। ___ प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण लेश्या नील लेश्या को प्राप्त . होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् न उसके वर्ण-गन्ध-रस स्पर्श रूप में बार-बार परिणत होती है?
उत्तर - हे गौतम! वह कृष्ण लेश्या आकार भावमात्र से हो, अथवा प्रतिभाग भावमात्र (प्रति बिम्बमात्र) से नील लेश्या होती है। वास्तव में यह कृष्ण लेश्या ही रहती है, वह नील लेश्या नहीं हो जाती। वह कृष्ण लेश्या वहाँ रही हुई उत्कर्ष को प्राप्त होती है, इसी कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण लेश्या नील लेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् न ही उसके वर्णगन्ध-रस स्पर्श रूप में बारबार परिणत होती है।
से णूणं भंते! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ? .
हंता गोयमा! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुजो परिणमइ। : से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुजो-भुजो परिणमइ?'
गोयमा! आगार भाव मायाए वा सिया, पलिभाग भाव मायाए वा सिया। णीललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थगया ओसक्कइ उस्सक्कड़ वा, से
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