SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कृष्णलेश्या के स्थान (तर-तम रूप भेद) कितने कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! कृष्ण लेश्या के असंख्यात स्थान कहे गए हैं। इसी प्रकार शुक्ल लेश्या तक के स्थानों की प्ररूपणा करनी चाहिए। विवेचन - लेश्या के प्रकर्ष-अपकर्ष कृत अर्थात् विशुद्धि और अविशुद्धि की तरतमता से होने वाले भेदों को लेश्या स्थान कहते हैं। एक एक लेश्या के तरतम भेद रूप स्थान, काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर है। क्षेत्र से असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर है। इसलिए कहा जाता है कि असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के जितने समय होते हैं अथवा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश होते हैं उतने ही लेश्या के स्थान हैं। किन्तु विशेषता यह है कि कृष्ण आदि तीन अशुभ भाव लेश्याओं के स्थान संक्लेश रूप और तेजो लेश्या आदि तीन शुभ भाव लेश्याओं के स्थान असंक्लेश रूप-विशुद्ध होते हैं। १५. अल्पबहुत्व द्वार एएसि णं भंते! कण्हलेस्सा ठाणाणं जाव सुक्कलेस्सा ठाणाण य जहण्णगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्साठाणा दव्वंट्ठयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज गुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज गुणा, जहण्णगा तेउलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज गुणा, जहण्णगा पम्हलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज्ज गुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज्ज गुणा, पएसट्ठयाए-सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्साठाणा पएसट्ठयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखिज गुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा पएसट्ठयाए असंखिज्ज गुणा, जहण्णगा तेउलेस्साए ठाणा पएसट्टयाए असंखिज्ज गुणा, जहण्णगा पम्हलेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखिज गुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखिज्ज गुणा, दव्वद्रुपएसट्ठयाए-सव्वत्थोवा जहणणंगा काउलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज गुणा, एवं कण्हलेस्सा, तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए असंखिज गुणा, जहण्णएहितो सुक्कलेस्साठाणेहिंतो दव्वट्ठयाए जहण्णकाउलेस्साठाणा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy