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________________ १० और सम्यक्त्व का निषेध किया है। मिश्र दृष्टि का परिणाम संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही होता है शेष जीवों में नहीं । अतः उसका भी यहाँ निषेध किया गया है। तीन विकलेन्द्रियों में परिणाम बेइंदिया गइ परिणामेणं तिरियगइया, इंदिय परिणामेणं बेइंदिया, सेसं जहा रइयाणं । णवरं जोग परिणामेणं वइ जोगी, काय जोगी, णाण परिणामेणं बहिणा वि, सुयणाणी वि, अण्णाण परिणामेणं मइ अण्णाणी वि, सुय अण्णाणी वि, णो विभंगणाणी, दंसण परिणामेणं सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, णो सम्मामिच्छादिट्ठी, सेसं तं चेव । एवं जाव चउरिंदिया, णवरं इंदिय परिवुड्डी प्रज्ञापना सूत्र कायव्वा । भावार्थ - बेइन्द्रिय जीव गति परिणाम से तिर्यंच गति वाले, इन्द्रिय परिणाम से दो इन्द्रियों वाले होते हैं। शेष सारा वर्णन नैरयिकों की तरह समझना चाहिये। विशेषता यह है कि वे योग परिणाम से वचनयोगी भी होते हैं काय योगी भी होते हैं । ज्ञान परिणाम से आभिनिबोधिक ज्ञानी भी होते हैं और श्रुतज्ञानी भी होते हैं । अज्ञान परिणाम से मति अज्ञानी भी होते हैं और श्रुतअज्ञानी भी होते हैं किन्तु विभंगज्ञानी नहीं होते। दर्शन परिणाम से सम्यग्दृष्टि भी होते हैं मिथ्यादृष्टि भी होते हैं किन्तु मिश्र दृष्टि (सम्यग् - मिथ्यादृष्टि) नहीं होते। शेष सब वर्णन नैरयिक जीवों की तरह समझना चाहिये । इसी प्रकार चउरिन्द्रिय जीवों तक समझ लेना चाहिये। विशेषता यह है कि तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय में उत्तरोत्तर एक-एक इन्द्रिय की वृद्धि कर लेनी चाहिये । अर्थात् तेइन्द्रिय में स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय में स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुन्द्रिय ये चार इन्द्रियाँ होती है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में तीन विकलेन्द्रिय जीवों की परिणाम संबंधी प्ररूपणा की गई है। कितनेक बेइन्द्रिय आदि जीवों को करण अपर्याप्तक अवस्था में सास्वादन सम्यक्त्व होता है अतः उन्हें ज्ञान परिणाम वाले और सम्यग्दृष्टि भी कहा गया है। तिर्यंच पंचेन्द्रियों में परिणाम - Jain Education International पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया गइ परिणामेणं तिरिय गइया, सेसं जहा णेरइयाणं, वरं सापरिणामेणं जाव सुक्कलेसा वि । चरित्त परिणामेणं णो चरित्ती, अचरित्ती वि, चरित्ताचरित्ती वि, वेय परिणामेणं इत्थि वेयगा वि, पुरिस वेयगा वि, णपुंसंगवेयगा वि । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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