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________________ प्रज्ञापना सूत्र वाले, उपयोग परिणाम से साकार उपयोग वाले और निराकार उपयोग वाले, ज्ञान परिणाम से आभिनिषोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी, अज्ञान परिणाम से मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी. और विभंग ज्ञानी (अवधि अज्ञानी), दर्शन परिणाम से सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि होते हैं। चारित्र परिणाम से वे न तो चारित्री हैं, न चारित्राचारित्री हैं किन्तु अचारित्री हैं। वेद परिणाम से स्त्रीवेदी भी नहीं, पुरुषवेदी भी नहीं किन्तु नपुंसक वेदी होते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक जीवों में दस परिणामों में से कौन-कौन से परिणाम पाये जाते हैं। इसकी प्ररूपणा की गयी है। नैरयिकों में कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं ही होती है। इनका क्रम इस प्रकार है - प्रथम की दो नरक पृथ्वियों में कापोत लेश्या, तीसरी नरक पृथ्वी में कापोत और नील लेश्या, चौथी नरक पृथ्वी में नील लेश्या, पांचवीं नरक पृथ्वी में नीललेश्या और कृष्णलेश्या तथा छठी और सातवीं नरक पृथ्वी में कृष्ण लेश्या ही होती है इसलिए कहा है कि - 'कण्हलेसाविणीललेसावि काउलेसावि'नैरयिकों में कृष्णलेश्या भी होती है, नीललेश्या भी होती है और कापोत लेश्या भी होती है। थोकड़ों की पुस्तकों में सातवीं नरक में महाकृष्ण लेश्या भी लिखी है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य के अलावा अन्य जीवों में भव स्वभाव के कारण से ही चारित्र , परिणाम नहीं होता है अतः यहाँ चारित्र परिणाम का निषेध किया गया है। ' वेद परिणाम के कथन में कहा है कि नैरयिक नपुंसक वेदी ही होते हैं, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते। क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्र (अ.२ सूत्र ५०) में कहा है - "नारक सम्मूर्छिनो नपुंसकानि" - नैरयिक और सम्मूछिम नपुंसक ही होते हैं। ___ इस प्रकार नैरयिक जीवों में ५० बोलों में से २९ बोल पाये जाते हैं - गति १, इन्द्रिय ५, कषाय ४, लेश्या ३, योग ३, उपयोग २, ज्ञान. ३, अज्ञान ३, दर्शन २, चारित्र १ (अचारित्री) वेद १ (नपुंसक)-२९। भवनवासी देवों में परिणाम असुरकुमारा वि एवं चेव, णवरं देव गइया, कण्ह लेसा वि जाव तेउ लेसा वि, वेयपरिणामेणं इथिवेयगा वि, पुरिसवेयगा वि, णो णपुंसगवेयगा, सेसं तं चेव। एवं जाव थणियकुमारा। भावार्थ - असुरकुमारों में भी इसी प्रकार समझना चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि वे देवगति वाले, कृष्ण लेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले, वेद परिणाम से वे स्त्रीवेद वाले पुरुषवेद वाले होते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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