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प्रज्ञापना सूत्र
एवं आउकाइया वणस्सइकाइया वि ।
भावार्थ - अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की उत्पाद - उद्वर्त्तन सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी
प्रकार पृथ्वीकायिकों के समान समझनी चाहिए।
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ते वाऊ एवं चेव, णवरं एएसिं तेउलेस्सा णत्थि ।
भावार्थ - तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की उत्पाद - उद्वर्त्तन सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है किन्तु विशेषता यह है कि इनमें तेजो लेश्या नहीं होती।
बिय तिय चरिंदिया एवं चेव तिसु लेस्सासु ।
भावार्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों का उत्पाद - उद्वर्त्तन सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार तीनों (कृष्ण, नील एवं कापोत) लेश्याओं में जानना चाहिए।
पंचेंदिय तिरिक्ख जोणिया मणुस्सा य जहा पुढवीकाइया आइल्लिया तिसु लेस्सासु भणिया तहा छसु वि लेस्सासु भाणियव्वा, णवरं छप्पि लेस्साओ चारेयव्वाओ।
कठिन शब्दार्थ - चारेयव्वाओ - विचरण करा देना चाहिए।
भावार्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों और मनुष्यों का उत्पाद उद्वर्त्तन सम्बन्धी कथन भी छहों श्याओं में उसी प्रकार है, जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों का उत्पाद उद्वर्त्तन- सम्बन्धी कथन प्रारम्भ की तीन लेश्याओं के विषय में कहा है। विशेषता यही है कि पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ छहों लेश्याओं का कथन कहना चाहिए।
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विवेचन - पृथ्वीकायिक आदि तिर्यंचों और मनुष्यों की उद्वर्त्तना के विषय में यह एकान्त नियम नहीं है कि जिस लेश्या वालों में वह उत्पन्न हो उसी लेश्या वाला हो कर वहाँ से उद्वर्त्तन करे। वह कदाचित् कृष्ण लेश्या वाला हो कर उद्वर्त्तन करता है कदाचित् नील लेश्या वाला होकर उद्वर्त्तन करता है, कदाचित् कापोत लेश्या वाला हो कर उद्वर्त्तन करता तथा कदाचित् वह जिस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्त्तन करता है क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्यों का लेश्यापरिणाम अन्तर्मुहूर्त्त मात्र स्थायी रहता है उसके पश्चात् बदल जाता है। कहा भी है
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अंतोमुहुत्तंमि गए, अंतोमुहुत्तंमि सेसए चेव ।
साहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ॥
अर्थात् मनुष्य और तिर्यंच आगामी भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने के बाद और देव तथा नैरयिक अपने भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहने पर परिणत हुई लेश्या से परलोक जाते हैं ऐसा शास्त्र वचन (उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३४ गाथा ६०) है।
तेजोलेश्या से युक्त होकर पृथ्वीकायिक में उत्पन्न तो होता है लेकिन तेजोलेश्या वाला होकर
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