SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तरहवाँ लेश्या पदद- तृतीय उद्देशक - सलेशी जीवों में उत्पाद - उद्वर्त्तन नैरयिक एवं देवों में द्रव्य लेश्या पूरे भव पर्यन्त तक वही रहती है, बदलती नहीं है । भाव लेश्या तो नैरयिक एवं देवों में भी पूरे भव में कई बार बदल सकती है। सेणूणं भंते! कण्हलेस्से पुढवीकाइए कण्हलेस्सेसु पुढवीकाइएसु उववज्जइ, कण्हलेस्से उववट्टइ, जल्लेस्से उववज्जइ तल्लेस्से उववट्टइ ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से पुढवीकाइए कण्हलेस्सेसु पुढवीकाइएस उववज्जइ, सिय कण्हस्से वट्टइ, सिय णीललेस्से उववट्टइ, सिय काउलेस्से उववट्टइ, सिय जल्लेस्से उववज्जइ तल्लेस्से उववट्टड् । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या कृष्ण लेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्ण लेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? तथा क्या कृष्ण लेश्या वाला हो कर वहाँ से उद्वर्त्तन करता है ? जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, क्या उसी लेश्या वाला हो कर वहाँ से उद्वर्तन करता है ? उत्तर - हाँ गौतम ! कृष्ण लेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्ण लेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्ण लेश्या वाला हो कर, कदाचित् नील लेश्या वाला होकर और कदाचित् कापोत लेश्या वाला होकर करता है । अर्थात् जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, कदाचित् उस लेश्या वाला हो कर मरण करता है और कदाचित् अन्य लेश्या वाला होकर मरण करता है । एवं णीललेस्साकाउलेस्सासु वि । १९३ भावार्थ - इसी प्रकार नील लेश्या वाले और कापोत लेश्या वाले पृथ्वीकायिक के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। से भंते! तेउलेस्से पुढवीकाइए तेउलेस्सेसु पुढवीकाइएसु उववज्जइ पुच्छा। हंता गोयमा! तेउलेस्से पुढवीकाइए तेउलेस्सेसु पुढवीकाइएस उववज्जइ, सिय कस्से उaas, सियं णीललेस्से उववट्टइ, सिय काउलेस्से उववट्टइ, तेउलेस्से उववज्जइ, णो चेव णं तेउलेस्से उववट्टइ । भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! तेजो लेश्या वाला पृथ्वीकायिक क्या तेजो लेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तेजो लेश्या वाला होकर ही उद्वर्तन करता है ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा । उत्तर - हाँ गौतम! तेजो लेश्या वाला पृथ्वीकायिक तेजो लेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्ण लेश्या वाला हो कर, कदाचित् नील लेश्या वाला हो कर कदाचित् कापोत लेश्या वाला होकर करता है, वह तेजो लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, परन्तु तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन नहीं करता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy