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________________ सत्तरहवाँ लेश्या पद-द्वितीय उद्देशक - सलेशी ऋद्धिक जीवों का अल्पबहुत्व १८९ DODdowlopouldpopowd00000 handra ooooooo गोयमा! कण्हलेस्सहिंतो एगिदिय तिरिक्ख जोणिएहितो णीललेस्सा महड्डिया, णीललेस्सेहितो तिरिक्ख जोणिएहितो काउलेस्सा महड्डिया, काउलेस्सेहितो तेउलेस्सा महड्डिया, सव्वप्पड्डिया एगेंदिय तिरिक्ख जोणिया कण्हलेस्सा, सव्वमहड्डिया तेउलेस्सा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कृष्ण लेश्या वाले, यावत् तेजो लेश्या वाले एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों में से कौन, किससे अल्पर्द्धिक हैं, अथवा महर्द्धिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! कृष्ण लेश्या वाले एकेन्द्रिय तिर्यंचों की अपेक्षा नील लेश्या वाले एकेन्द्रिय महर्द्धिक हैं, नील लेश्या वाले एकेन्द्रियों से कापोत लेश्या वाले एकेन्द्रिय महर्द्धिक हैं, कापोत लेश्या वालों से तेजो लेश्या वाले एकेन्द्रिय महर्द्धिक हैं। सबसे अल्पऋद्धि वाले कृष्ण लेश्यी एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक हैं और सबसे महाऋद्धि वाले तेजो लेश्यी एकेन्द्रिय हैं। एवं पुढवीकाइयाण वि। भावार्थ - सामान्य एकेन्द्रिय तिर्यंचों की अल्पर्द्धिकता और महर्द्धिकता की तरह कृष्ण आदि चार लेश्या वाले पृथ्वीकायिकों की अल्पर्द्धिकता-महर्द्धिकता के विषय में समझ लेना चाहिए। एवं एएणं अभिलावेणं जहेव लेस्साओ भावियाओ तहेव णेयव्वं जाव चउरिदिया। . भावार्थ - इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक जिनमें जितनी लेश्याएं जिस क्रम से कही गई हैं, उसी क्रम से पूर्वोक्त आलापक के अनुसार उनकी अल्पर्द्धिकता और महर्द्धिकता समझ लेनी चाहिए। पंचेंदिय तिरिक्ख जोणियाणं तिरिक्ख जोणिणीणं सम्मुच्छिमाणं गब्भवक्कंतियाण य सव्वेसिं भाणियव्वं जाव अप्पड्डिया वेमाणिया देवा तेउलेस्सा, सव्वमहड्डिया वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा। केंद्र भणंति-चउवीसं दंडएणं इड्डी भाणियव्वा॥४९९॥ भावार्थ - इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों, तिर्यंच स्त्रियों, सम्मूछिमों और गर्भजों-सभी की कृष्ण लेश्या से लेकर शुक्ल लेश्या पर्यन्त यावत् वैमानिक देवों में जो तेजो लेश्या वाले हैं, वे सबसे अल्पर्द्धिक हैं और जो शुक्ल लेश्या वाले हैं, वे सबसे महर्द्धिक हैं। कई आचार्यों का कहना है कि चौवीस दण्डकों को लेकर ऋद्धि का कथन करना चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चौबीस दण्डक के जीवों की अल्पर्द्धिकता और महद्धिकता की प्ररूपणा की गयी है। इनमें जो कृष्ण लेशी जीव हैं वे सबसे कम ऋद्धि वाले और जो शुक्ल लेशी जीव हैं वे सबसे अधिक ऋद्धि वाले कहे गये हैं। .. ॥पण्णवणाए भगवईए सत्तरसमे लेस्सापए बीओ उद्देसओ समत्तो॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र के सतरहवें लेश्या पद का दूसरा उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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