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________________ सत्तरहवाँ लेश्या पद-द्वितीय उद्देशक - विविध लेश्या वाले चौबीस.... १८१ विशेषाधिक है इसका कारण पूर्वानुसार समझना चाहिए। उनसे भी कापोत लेश्या वाली देवियाँ संख्यातगुणी हैं और वे भवनपति और वाणव्यंतर निकाय के अन्तर्गत जाननी चाहिए क्योंकि ज्योतिषी और वैमानिक देवियों में कापोत लेश्या नहीं होती है। देवियाँ देवों से सामान्य रूप से लगभग बत्तीस गुणी बत्तीस अधिक है। अत: कृष्ण लेश्या वाले देवों से कापोत लेश्या वाली देवियाँ संख्यातगुणी भी घटित होती है उनसे नील लेश्या वाली देवियाँ विशेषाधिक है, उनसे कृष्ण लेश्या वाली विशेषाधिक है। यहाँ भी पूर्वोक्तानुसार कारण समझना चाहिए। उनसे भी तेजो लेश्या वाले देव संख्यात गुणा हैं क्योंकि कितनेक भवनपति, वाणव्यंतर तथा सभी ज्योतिषी और सभी सौधर्म और ईशान देवों के तेजो लेश्या होती है उनसे भी तेजो लेश्या वाली देवियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि देवों से देवियाँ लगभग बत्तीसगुणी बत्तीस अधिक होती हैं। - एएसि णं भंते! भवणवासीणं देवाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे . कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखिज गुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन कृष्ण लेश्या वाले, यावत् तेजो लेश्या वाले भवनवासी देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? ___उत्तर - हे गौतम! सबसे कम तेजो लेश्या वाले भवनवासी देव हैं, उनसे कापोत लेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यात गुणा हैं, उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्ण लेश्या वाले भवनवासी देव विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण आदि लेश्या वाले भवनवासी देवों का अल्प बहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार हैं - सबसे थोड़े भवनवासी देव तेजो लेश्या वाले हैं क्योंकि वे महर्द्धिक (महान् ऋद्धि वाले) हैं और जो महर्द्धिक होते हैं वे थोड़े ही होते हैं। उनसे असंख्यात गुणा कापोत लेश्या वाले होते हैं क्योंकि बहुत से भवनवासी देवों को कापोत लेश्या संभव है। उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं क्योंकि उनसे भी अधिक भवनवासी देवों को नील लेश्या संभव है। उनसे भी कृष्ण लेश्या वाले भवनवासी देव विशेषाधिक हैं क्योंकि उनसे भी अधिक देवों में कृष्ण लेश्या होती है। एएसि णं भंते! भवणवासिणीणं देवीण कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! एवं चेव। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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