SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तरहवाँ लेश्या पद-द्वितीय उद्देशक - सलेशी-अलेशी जीवों का अल्पबहुत्व १६९ गोयमा! एगा तेउलेसा॥ ४८७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वैमानिक देवियों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? . उत्तर - हे गौतम! उनमें एकमात्र तेजो लेश्या होती है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में पाई जाने वाली लेश्याओं का निरूपण किया गया है जिसकी संग्रहणी गाथाएं इस प्रकार हैं - किण्हा नीला काऊ तेउलेसा य भवणवंतरिया। जोइस सोहम्मीसाण तेउलेसा मुणेयव्या॥१॥ कप्पे सणंकुमारे माहिदे चेव बंभलोए य। एएस पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसा उ॥२॥ पुढवी-आउ-वणस्सइ बायर पत्तेय लेस चत्तारि। गब्भय तिरिनरेसु छल्लेसा तिन्नि सेसाणं॥३॥ भावार्थ - कृष्ण, नील, कापोत और तेजो लेश्या भवनपति और वाणव्यंतर देवों में होती है। ज्योतिषियों, सौधर्म और ईशान देवलोक के देवों में एक तेजो लेश्या होती है। सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक के देवों में पद्मं लेश्या और आगे के देवलोकों के देवों में शुक्ल लेश्या होती है। बादर पृथ्वीकाय, अपकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों में प्रारंभ की चार लेश्याएं, गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में छहों लेश्याएं और शेष जीवों में प्रथम की तीन लेश्याएं होती है। वैमानिक देवियाँ, प्रथम सौधर्म देवलोक और दूसरे ईशान दे लोक में ही हैं और उनमें एक मात्र तेजो लेश्या ही होती है। आगे के देवलोकों में देवियाँ नहीं पाई जाती है। - सलेशी-अलेशी जीवों का अल्पबहत्व _एएसिणं भंते! जीवाणं सलेस्साणं कण्हलेसाणं जाव सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखिज गुणा, तेउलेस्सा संखिज गुणा, अलेस्सा अणंत गुणा, काउलेस्सा अणंत गुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया॥४८८॥ ___ कठिन शब्दार्थ - सलेस्साणं - सलेश्य-लेश्या वाले जीवों में, अलेस्साण - अलेश्य-लेश्या रहित जीवों में। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन सलेश्य, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या वाले और अलेश्य जीवों में कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy