________________
१५४
भावार्थ - असुरकुमारों की क्रिया एवं आयु के विषय में शेष सब निरूपण नैरयिकों की क्रिया एवं आयुविषयक निरूपण के समान समझना चाहिए ।
एवं जाव थणियकुमारा ॥ ४८१ ॥
भावार्थ - असुरकुमारों के आहारादि विषयक निरूपण की तरह नागकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक का निरूपण इसी प्रकार समझना चाहिए।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार आदि दस भवनपति देवों की समआहार आदि सात द्वारों से प्ररूपणा की गई है।
-
प्रज्ञापना सूत्र
असुरकुमार आदि देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट सात हाथ की होती है। उत्तरवैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है। जो असुरकुमार आदि जितने बड़े शरीर वाले हैं वे उतने ही अधिक पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण करते है जो अल्प (लघु) शरीर वाले हैं वे अल्प पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु असुरकुमारों में कर्म, वर्ण, और लेश्या नैरयिक से विपरीत (उलटी) होती है। तदनुसार पूर्वोत्पन्न देव महाकर्म वाले होते हैं, उन्होंने शुभ कर्म भोग लिये हैं और उनके बहुत अशुभ कर्म शेष रहे हैं तथा थोड़े समय में देवायु पूरी करके पृथ्वी आदि में उत्पन्न होने वाले होते हैं इससे विपरीत पश्चादुत्पन्न देव अल्प कर्म वाले हैं। इसी तरह पूर्वोत्पन्न देव अविशुद्ध वर्ण वाले हैं और पश्चादुत्पन्न देव विशुद्ध वर्ण वाले हैं । पूर्वोत्पन्न देव अविशुद्ध लेश्या वाले हैं और पश्चादुत्पन्न देव विशुद्ध लेश्या वाले हैं।
पृथ्वीकायिक आदि में सप्त द्वार प्ररूपणा
. पुढविकाइया आहार कम्म वण्ण लेस्साहिं जहा णेरड्या ।
भावार्थ - जैसे नैरयिकों के आहार आदि के विषय में कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों के सम-विषम आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में कहना चाहिए।
विवेचन शंका- पृथ्वीकायिकों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है फिर अल्प शरीर और महाशरीर कैसे ?
-
समाधान पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होने पर भी उनमें चउट्ठाणवडिया - चतुः स्थानपतित अन्तर होता है। प्रज्ञापना सूत्र के पांचवें पद में कहा भी है
-
"पुढविक्काए पुढविक्काइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए "
अतः महाशरीर वाले पृथ्वीकायिक महाशरीर होने से लोमाहार की अपेक्षा अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं और बहुत पुद्गलों को उच्छ्वास रूप में ग्रहण करते हैं तथा बार-बार आहार करते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org