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सोलहवां प्रयोग पद - गति प्रपात के भेद-प्रभेद
७. नौका गति - नाव से महानदी आदि में जाना नौका गति कहलाती है।
८. नय गति - नैगम आदि नयों का अपना-अपना मत पुष्ट करना अथवा एक दूसरे की अपेक्षा रखते हुए नयों द्वारा प्रमाण से अबाधित वस्तु की व्यवस्था करना नय गति कहलाती है।
९. छाया गति - घोड़े, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गंधर्व, वृषभ, रथ आदि की छाया के आधार से चलना छाया गति कहलाती है।
१०. छायानुपात गति - पुरुष के साथ छाया जाती है, पुरुष छाया के साथ नहीं जाता, यह छायानुपात गति है ।
११. लेश्या गति - कृष्ण लेश्या नील लेश्या के द्रव्य पाकर नील लेश्या रूप में यानी नील लेश्या के वर्ण गंध रस रूप में परिणत होती है। इसी तरह नील लेश्या कापोत लेश्या रूप में, कापोत लेश्या तेजो लेश्या रूप में, तेजो लेश्या पद्म लेश्या रूप में और पद्म लेश्या शुक्ल लेश्या रूप में परिणत होती है, इसे लेश्या गति कहते हैं ।
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१२. लेश्यानुपात गति - जीव जिस लेश्या में काल करता है उसी लेश्या में उत्पन्न होता है इसे लेश्यानुपात गति कहते हैं।
१३. उद्दिश्य प्रविभक्त गति - आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणी, गणधर, गणावच्छेदक का नाम लेकर उनके पास जाना उद्दिश्य प्रविभक्त गति कहलाती है।
१४. चतुः पुरुष प्रविभक्त गति - चार पुरुषों की चार तरह की पृथक्-पृथक् गति चतुः पुरुष प्रविभक्त गति कहलाती है। जैसे चार पुरुष साथ रवाना हुए साथ पहुँचे, जुदा-जुदा रवाना हुए साथसाथ पहुँचे, जुदा-जुदा रवाना हुए, जुदा-जुदा पहुँचे और साथ-साथ रवाना हुए जुदा जुदा पहुँचे।
१५. वक्र गति - वक्रगति चार तरह की होती है- घट्टन, स्तंभन, श्लेषण और प्रपतन। १. घट्टनलंगड़ाते हुए चलना। २. स्तंभन - रुक-रुक कर चलना । ३. श्लेषण - शरीर के एक अंग से दूसरे अंग का स्पर्श करते हुए चलना । ४. प्रपतन- गिरते गिरते चलना । घट्टन आदि चारों गतियां अनिष्ट एवं अप्रशस्त हैं इसलिए इन्हें वक्रगति कहते हैं ।
१६. पंक गति - कीचड़ या जल में अपने शरीर को सहारा देकर यानी स्थिर करके गति करना पंक गति कहलाती है ।
१७. बंधन विमोचन गति - पके हुए आम, अम्बाड़ग, बिजौरा, बिल, कबीठ, सीताफल, दाड़िम आदि फलों का बंधन से टूट कर भूमि पर गिर पड़ना बंधन विमोचन गति कहलाती है।
॥ पण्णवणाए भगवईए सोलसमं पओगपयं समत्तं ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती का सोलहवां प्रयोग पद समाप्त ॥
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