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________________ सोलहवां प्रयोग पद- समुच्चय जीव और चौबीस दण्डकों में प्रयोग उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीवों के चार प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं १. असत्यामृषावचन - प्रयोग २. औदारिक शरीर काय प्रयोग ३. औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोग " और ४. कार्मण शरीर काय प्रयोग। इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों के प्रयोग के विषय में समझ लेना चाहिए। - पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! तेरसविहे पओगे पण्णत्ते । तंजहा - सच्चमणप्पओगे, मोसमणप्पओगे, सच्चामोसमणप्पओगे, असच्चामोसमणप्पओगे, एवं वड़प्पओगे वि, ओरालिय सरीर कायप्पओगे, ओरालिय मीससरीर कायप्पओगे, वेडव्वियसरीर कायप्पओगे, वेडव्वियमीससरीर कायप्पंओगे, कम्मासरीर कायप्पओगे । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? उत्तर हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों के तेरह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं १. सत्यमनःप्रयोग २. मृषामनः प्रयोग ३. सत्यमृषामनः प्रयोग ४. असत्यामृषामनः प्रयोग ५-८. इसी तरह चार प्रकार का वचनप्रयोग ९. औदारिक शरीर काय - प्रयोग १०. औदारिक मिश्र शरीर काय - प्रयोग ११. वैक्रिय शरीर काय - प्रयोग १२. वैक्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग और १३. कार्मण शरीर काय- प्रयोग | - १११ मणूसाणं पुच्छा । गोयमा! पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते । तंजहा - सच्चमणप्पओगे जाव कम्मासरीर कायप्पओगे । वाणमंतरजोइसिय वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं ॥ ४६१ ॥ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं? उत्तर - हे गौतम! मनुष्यों के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं - मनः प्रयोग से लेकर कार्मण शरीर काय प्रयोग तक कह देना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के प्रयोग के विषय में नैरयिकों के समान समझना Jain Education International - - चाहिए | विवेचन प्रस्तुत सूत्र में चौबीस दण्डकों में प्रयोगों की प्ररूपणा की गयी है । समुच्चय जीवों में पन्द्रह ही प्रयोग होते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा सदैव पन्द्रह प्रयोग पाये जाते हैं। नैरयिकों में ग्यारह प्रयोग पाए जाते हैं क्योंकि इनमें १. औदारिक २. औदारिक मिश्र ३. आहारक और ४. आहारक मिश्र । ये चार प्रयोग असंभव है । इसी प्रकार भवनपति वाणव्यंतर ज्योतिषी और वैमानिक For Personal & Private Use Only सत्य www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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