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प्रज्ञापना सूत्र
वाणव्यन्तर में संख्यात सौ योजन वर्ग प्रमाण विष्कम्भ सूची कही गयी है उसके बदले ज्योतिषी देवों में २५६ अंगुल वर्ग परिमाण कहनी चाहिए ।
वाणव्यंतर देवों के वैक्रिय बद्ध में इनकी विष्कम्भ सूची तिर्यंच पंचेन्द्रिय के औदारिक शरीर की विष्कम्भ सूची से असंख्यात गुण हीन समझना चाहिये । मूल पाठ में तो उनके अपहार वाले क्षेत्र की अपेक्षा विष्कम्भ सूची बताई है किन्तु श्रेणियों की चौड़ाई रूप विष्कम्भ सूची तो उपर्युक्त रीति से समझना चाहिये। ज्योतिषी के वैक्रिय बद्ध में इनकी विष्कम्भसूची व्यंतरदेवों से संख्यात गुणी बड़ी समझना चाहिये। मूल पाठ में २५६ अंगुल के वर्ग प्रमाण प्रतर खण्ड रूप विष्कम्भ सूची बताई है वह तो अपहार रूप प्रतिभाग अंश की अपेक्षा समझना चाहिये। यह प्रतिभाग अंश तो २५६ अंगुल के वर्ग प्रमाण प्रतर खण्ड रूप होने से व्यंतर देवों से संख्यात गुण हीन समझना चाहिये। पंच संग्रह ग्रंथ में २५६ अंगुल रूप सूची प्रदेशों का ही प्रतिभाग कहा है। वर्ग नहीं कहा है । परन्तु आगम में आया हुआ कथन ही उचित लगता है।
वैमानिक देवों का वर्णन असुरकुमार देवों की तरह कहना चाहिए। किन्तु इतना अन्तर है कि इनमें विष्कम्भ सूची, अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश प्रदेशों के दूसरे वर्गमूल को तीसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जो प्रदेश राशि आती है, उस परिमाण जानना चाहिए। असत् कल्पना से अंगुल परिमाण क्षेत्र की प्रदेश राशि २५६ है । उसका दूसरा वर्गमूल ४ है और तीसरा वर्गमूल २ - है । दूसरे वर्ग मूल ४ को तीसरे वर्गमूल २ से गुणा करने पर ८ होते हैं ।
॥ पण्णवणाए भगवईए बारसमं सरीरपयं समत्तं ॥
॥ प्रज्ञापना सूत्र का बारहवां शरीर पद समाप्त ॥
॥ भाग - २ समाप्त ॥
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