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बारहवाँ शरीर पद - वाणव्यंतर आदि के बद्ध-मुक्त शरीर
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विक्खंभसूई, बि छप्पण्णंगुल सय वग्गपलिभागो पयरस्स। वेमाणियाणं एवं चेव, णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई, अंगुल बिइय वग्गमूलं तइय वग्गमूल पडुप्पण्णं, अहवा णं अंगुल तइय वग्गमूल घणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, सेसं तं चेव॥ ४१३॥
भावार्थ - वाणव्यंतर देवों के बद्ध और मुक्त औदारिक तथा आहारक शरीरों का निरूपण नैरयिकों के समान समझ लेना चाहिये। वाणव्यंतर देवों के वैक्रिय शरीरों का निरूपण भी नैरयिकों के समान है किन्तु इतनी विशेषता है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची जानना चाहिए। संख्यात सैकड़ों योजन के वर्ग प्रमाण खंड प्रतर के पूरण (पूरने) और अपहार में वह सूची है। मुक्त वैक्रिय शरीरों का कथन औधिक औदारिक शरीरों के अनुसार समझना चाहिये। आहारक शरीर असुरकुमारों की तरह जानना चाहिए। तैजस और कार्मण शरीरों का कथन उन्हीं के वैक्रिय शरीर के समान कह देना चाहिये। . ज्योतिषियों में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिये किन्तु इतनी विशेषता है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची दो सौ छप्पन अंगुल वर्ग परिमाण खण्ड रूप प्रतर के पूरण और अपहार में समझना चाहिये। . : वैमानिकों के बद्ध और मुक्त शरीरों की प्ररूपणा भी इसी तरह समझनी चाहिये। विशेषता · यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची तीसरे वर्ग मूल से गुणित अंगुल के दूसरे वर्ग मूल
परिमाण है अथवा अंगुल के तीसरे वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियां हैं। शेष सारा वर्णन पूर्वोक्त कथन के अनुसार समझना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के बद्ध और मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गयी है। वाणव्यन्तर में तीन शरीर पाये जाते हैं वे इस प्रकार हैं - वैक्रिय, तैजस और कार्मण। वाणव्यन्तर में बद्ध वैक्रिय, बद्ध तैजस और बद्ध कार्मण शरीर असंख्यात होते हैं। काल की अपेक्षा प्रति समय एक-एक शरीर निकालने पर असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी परिमाण काल लगता है। क्षेत्र की अपेक्षा प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों के आकाश प्रदेश परिमाण है। श्रेणियों की विष्कंभ सूची संख्यात सौ योजन वर्ग 0 परिमाण है। आशय यह है कि संख्यात सौ योजन वर्ग परिमाण श्रेणी खंड में एक-एक वाणव्यन्तर की स्थापना की जाय तो सारा प्रतर भर जाता है। अथवा एक-एक वाणव्यन्तर के साथ संख्यात सौ योजन वर्ग परिमाण श्रेणी का आकाश खंड निकाला जाय तो इधर वाणव्यन्तर समाप्त हो जाते हैं उधर सारा प्रतर खाली हो जाता है।
ज्योतिषी देवों के शरीरों का वर्णन भी वाणव्यंतर देवों की तरह ही है। किन्तु अन्तर इतना है कि
० संख्यात सौ योजन वर्ग की जगह धारणा से ३०० योजन वर्ग भी कहते हैं।
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