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________________ ३९४ प्रज्ञापना सूत्र विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गई है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के बद्ध औदारिक, बद्ध तैजस और बद्ध कार्मण शरीर बेइन्द्रिय की तरह कह देना चाहिए। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के बद्ध वैक्रिय शरीर असुरकुमारों की तरह कह देना चाहिए। किन्तु इतना अन्तर है कि असुरकुमारों में सूची के परिमाण में अंगुल परिमाण क्षेत्र की प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवां भाग लिया है पर यहाँ असंख्यातवां भाग लेना चाहिए। मनुष्यों के बद्ध-मुक्त शरीर मणुस्साणं भंते! केवइया ओरालिय सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, तत्थ णं जे ते. बद्धेल्लगा ते णं सिय संखिजा, सिय असंखिजा, जहण्णपए संखिजा, संखिजाओ कोडाकोडीओ, ति जमल पयस्स उवरि चउ जमल पयस्स हिट्ठा, अहवा णं पंचम वग्गपडुप्पण्णो छट्टो वग्गो, अहवा णं छण्णउई छेयणग दाइरासी, उक्कोसपए असंखिजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ रूव पक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरइ, तीसे सेढीए कालखेत्तेहिं अवहारो मग्गिजइ-असंखिज्जा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुल पंढम वग्गमूलं तइय वग्गमूल पडुप्पण्णं। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा ओरालिया ओहिया मुक्केल्लगा। कठिन शब्दार्थ - ति जमल पयस्स - तीन यमल पद के, छण्णउई छेयणगदाई - छियानवें छेदनकदायी। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! मनुष्यों के औदारिक शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध औदारिक शरीर हैं वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। जघन्य पद में संख्यात होते हैं या संख्यात कोटाकोटि परिमाण होते हैं अथवा तीन यमल पद के ऊपर तथा चार यमल पद के नीचे होते हैं, अथवा पांचवें वर्ग से गुणित छठे वर्ग परिमाण होते हैं अथवा छियानवें छेदनक दायी राशि परिमाण होते हैं। उत्कृष्ट पद में असंख्यात हैं और काल से असंख्यात, उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों के समयों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र से एक रूप अर्थात् एक संख्या जिसमें प्रक्षिप्त की जाय ऐसे मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है। उस श्रेणी की काल और क्षेत्र से अपहार मार्गणा होती है। काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों से अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल के प्रथम वर्ग मूल को तीसरे वर्ग मूल से गुणित संख्या परिमाण जानना चाहिए। उनमें जो मुक्त औदारिक शरीर हैं वे सामान्य मुक्त औदारिक शरीरों की तरह समझना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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