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________________ बारहवाँ शरीर पद - तिर्यंच पंचेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीर पंक्ति में रखे तो वह पंक्ति (श्रेणी) असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन जितनी लम्बी बन जायेगी। जैसे असत् कल्पना से प्रतर रूप अंगुल के ६५५३६ प्रदेशों जितने लम्बे चौड़े क्षेत्र के कुल प्रदेश ६५५३६×६५५३६=४२९४९६७२९६ हुए। उसका असंख्यातवां (वर्ग रूप) भाग १६ वाँ हिस्सा मानने पर उसमें प्रदेश १६७७७२१६ होते हैं । यह असंख्यातवां भाग ४०९६ प्रदेशों जितना लम्बा और चौड़ा है। अब ४०९६ प्रदेशों वाले श्रेणी खंडों को १६ बार उठा उठा कर पंक्ति में रखने पर एक अंगुल हो जायेगा। इस प्रकार ४०९६ बार उठाने पर यह श्रेणी बहुत लम्बी (असत् कल्पना से २५६ अंगुल जितनी) जायेगी। अतः शंका का स्थान नहीं रहता है। इन उपर्युक्त युक्तियों से 'प्रतर रूप अंगुल का असंख्यातवां भाग' मानना ही उचित लगता है। बेइन्द्रिय के बद्धेलग शरीर बताते हुए अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप प्रतर खण्ड से संपूर्ण (एक) प्रतर जितने क्षेत्र का अपहार करना बताया है एवं आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप काल में उनका अपहार करना बताया है। यद्यपि प्रतिसमय अपहार किया जाता तो भी असंख्य उत्सर्पिणी 'अवसर्पिणी बीत जाती है । परन्तु यहाँ अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप प्रतर खंड की साधर्म्यता से बता • दिया गया है। परन्तु कोई खास प्रयोजन नहीं है। तिर्यंच पंचेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीर पंचेंदिय तिरिक्ख जोणियाणं एवं चेव । णवरं वेडव्विय सरीरएस इमो विसेसोअर्थ - पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों के विषय में भी इसी प्रकार कह देना चाहिए। इनके बद्ध और मुक्त वैक्रिय शरीरों में इस प्रकार विशेषता है। पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं भंते! केवइया वेडव्विय सरीरया पण्णत्ता ? ३९३ 0000000 गोमा ! दुवा पण्णत्ता । तंजहा - बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखिज्जा, जहा असुरकुमाराणं, णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुल पढम वग्गमूलस्स असंखिज्जइभागो । मुक्केल्लगा तहेव ॥ ४९२ ॥ - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों के वैक्रिय शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध वैक्रिय शरीर हैं, वे असंख्यात हैं इत्यादि । असुरकुमार जीवों के समान समझना चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग परिमाण समझनी चाहिये। मुक्त वैक्रिय शरीरों के विषय में भी उसी प्रकार समझना चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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