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ग्यारहवाँ भाषा पद - वचन के सोलह प्रकार
के रूप में निकालता है किन्तु मृषाभाषा के रूप में नहीं निकालता है, सत्यामृषा भाषा के रूप में नहीं निकालता है और न ही असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक एक वचन सम्बन्धी दण्डक कहना चाहिये। जिस प्रकार - एक वचन का दण्डक कहा है उसी प्रकार बहुवचन का दण्डक भी कहना चाहिये ।
जीवे णं भंते! जाई दव्वाइं मोसभासत्ताए गिण्हइ, ताइं किं सच्चभासत्ताए णिसिरड़, मोसभासत्ताए णिसिरड़, सच्चामोसभासत्ताए णिसिरइ, असच्चामोसभासत्ताए णिसिरइ ?
गोंयमा! णो सच्चभासत्ताए णिसिरइ, मोसभासत्ताए णिसिरइ, णो सच्चामोस भासत्ताए णिसिरइ, णो असच्चामोसभोसत्ताए णिसिर । एवं सच्चामोस भासत्ताए वि । असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव, णवंर असच्चामोसभासत्ताए विगलिंदिया तव पुच्छिजंति, जाए चेव गिण्हइ ताए चेव णिसिर । एवं एए एगत्तपुहुत्तिया अट्ठ दंडगा भाणियव्वा ॥ ४०२ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को मृषा भाषा के रूप में ग्रहण करता है क्या उन्हें वह सत्य भाषा के रूप में निकालता है, मृषा भाषा के रूप में निकालता है, सत्या मृषा भाषा के रूप में निकालता है अथवा असत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है ?
उत्तर - हे गौतम! जीव जिन द्रव्यों को मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है उनको सत्यभाषा के रूप में नहीं निकालता है, मृषाभाषा के रूप में निकालता है, सत्यामृषाभाषा के रूप में नहीं निकालता और न ही असत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है । इसी प्रकार सत्यामृषा भाषा के विषय में भी समझ लेना चाहिए । असत्यामृषा भाषा के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु असत्यामृषा भाषा में विकलेन्द्रियों के विषय में उसी प्रकार पूर्ववत् पूछना चाहिये। जिस भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है उसी भाषा के रूप में द्रव्यों को निकालता है। इस प्रकार एक वचन और बहुवचन के आठ दण्डक कह देने चाहिये ।
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वचन के सोलह प्रकार
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कइविहे णं भंते! वयणे पण्णत्ते ?
गोयमा ! सोलसविहे वयणे पण्णत्ते । तंजहा एगवयणे, दुवयणे, बहुवयणे, इत्थिवयणे, पुमवयणे, णपुंसगवयणे, अज्झत्थवयणे, उवणीयवयणे, अवणीयवयणे,
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